Book Title: Bhadrabahu Charitra
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Jain Bharti Bhavan Banaras

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Page 95
________________ समूलमापानुवाद मैं भी अब तुम्हारे ऊपर करूंगा ऐसा कहते हुआ-यूलि पत्थर तथा अमि आदिको वृष्टिसे धार उपद्रव करने लगा ॥ ११ ॥२१॥ ___ तब साधुलोग अत्यन्त भय भीत होकर व्यन्तरसे प्रार्थना करने लगे- देव ! हमारा अपराध क्षमा करो। यह हमलोगोंने मुर्खतासे किया था । देव बोला--- यही यदि तुम्हें इच्छित है तो जब तुमलोग इस कुमार्ग को छोड़कर यथार्थ मार्गको ग्रहण करोगे तबही तुम्हें उपद्रच रहित करूंगा देवके वचन सुनकर साधुओंने कहा-तुमने कहा सो तो ठीकहै परन्तु मूलमार्ग (निम्रन्यमार्ग) को हमलोग धारण नहीं कर सकते क्योंकि वह अत्यन्त कठिन है। किन्तु आप हमारे गुरु हैं इस लिये भक्तिपूर्वक आपकी निरन्तर पूजन करते रहेंगे। इस प्रकार अत्यन्त विनयसे उस क्रोधित व्यन्तरको शान्त करके गुरुकी हडिये लाये और उसमें गुरुकी कल्पना की । आजभी लोकमें हहियें पूजी जाती हैं नो नितरां दरुपदानम् ॥ 0 मामिषारदाप्रति पराभवम् । मन्द विपास्य यो यथा में विदितं पुरा गर्नेमणुः गंप्रता । समस्त मामकांनागो देना हानाहानिमिनन् ॥ १॥ दी प्रहप्पथ मुसंगमन । सदा जन्पादिमीर ने सार्म मे १४॥ पंग गुलमागायन ने नमः | पास पूEिntry: ॥ ३४ ॥ नास्पासिधिन-METARIABE : Tiri MER गंमत २५foramin B GR. Ana

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