Book Title: Bhadrabahu Charitra
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Jain Bharti Bhavan Banaras

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Page 102
________________ भद्रवाहु चरित्र ये बुमुक्षा आदितो वेदनीय कर्मके सद्भावमें होती हैं और जिने भगवान के मोहनीय कर्मका नाश होजाने से वेदनीय कर्म अपना कार्य करने में शक्ति विहीन ( असमर्थ ) है । जैसे जली हुई रस्सी बन्धनादि कार्यके उपयोग में नहि आसकती । इसलिये केवली भगवान के दोषप्रद कवला आहरिंकी कल्पना करना अनुचित है । और मोहमूल ही वेदनीय कर्म क्षुधादिवेदनाका देने वाला होता है । जिन भगवानके मोहनीय कर्मका नाश हाजानेसे वेदनीय कर्म अपना कार्य नहि कर सकता जैसे मूल रहित वृक्ष पर फल पुष्पादि नहि हो सकते । भोजन करनेकी इच्छाको बुभुक्षा कहते हैं और वह मोहसे होती है और मोहका जिन भगचानके जब नाश हो गया है तो क्योंकर आहार की कल्पनाका संभव माना जाय ? ॥ ६० - ६४ ॥ उसे ही स्फुट करते हैं- जो इन्द्रिय सम्बन्धी विषयोंमें विरक्त हैं तीन K • । वेद्यकम्र्म्मणः । मुक्तिः केवलिनां तस्मान्न युक्ता दोपदायिनी ॥ ६० ॥ क्षीणमोहे जिने वैद्यं खकार्यकरणेऽक्षमम् । खकीयशकिरहितं दग्धरज्जुवदअसा ॥ ६१ ॥ मोहमूलं 'भवेद्वेयं क्षुभादिफलकारकम् । तदभावेऽक्षमं बेयं छिन्नमूलतथा ॥ ६२ ॥ भोकुमिच्छा बुभुक्षा स्वारस्वच्छापि मोहसंभवा । तद्विनाचे जिनेन्द्रस्य कथं स्याद्भुक्ति संमदः ॥ ६३ ॥ तद्यथा ॥ विरकस्येन्द्रियार्थेषु गुप्तित्रितयमीयुपः । मुनेः संजायते ध्यानं कर्म मर्मनिबर्हणम् ॥ ६४ ॥ ध्यानात्साम्यरसः शुद्धस्तस्मात्स्यात्मावबोधनम् ।

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