________________
४६ भद्रबाहु-चरित्रक्योंकि यह जैनशास्त्रोंकी आज्ञा है। ___ चन्द्रगुप्ति मुनि गुरूके कहे हुये वचनोंको स्वीकार कर और उनके पादारविन्दीको नमस्कार कर आहारके लिये वनमें भ्रमण करने लगे। उस अटवीमें पांच वृक्षाक नीचे घूमते हुये चन्द्रगुप्ति मुनिको शुरुभक्त तथा सुदृढ़चारित्रके धारण करने वाले समझकर कोई जिनधर्मकी अनुरागिणी तथा शुद्ध हृदयकी धारक वनदेवीनेवहां आकर और उसीसमय अपना रूप बदल कर एकही हाथसे-वृक्षके नीचे धरी हुई, उत्तमर अन्नसे भरी हुई तथा घी शर्करादिसे सुशोभित थाली मुनिके लिये दिखलाई ॥
चन्द्रगुप्ति मुनि इस आश्चर्य को अटवीमें देखकर मनमें विचारते लगे कि-शुद्ध भोजन भले ही तयार क्यों न हो ? परन्तु दाताके विना तो लेना योग्य नहींहै। ऐसा कहकर वहांसे चल दिये और गुरूके पास जाकर
कान्तारचयाँ तवं यषोका श्रीजिनागमे ॥ १६ ॥ गिरं गुरूविता रम्या प्रमाणीकृत्य संयतः। प्रणम्य गुरुपादान्जी भ्रामथै स व्यचीचरत् ॥ १७ ॥ नमस्तन समिक्षार्थ पञ्चानां शाखिनामधः । धनदेषी विदित्वा वे गुरुभवं दृढभूतम् ॥ १८ ॥ मत्सम जिनधर्मस्य तत्रागस खबं स्थिता । पराक्स नि रूममेकैनव स्वपाणिना | १९ ॥ दर्शयन्ती शुभस्वान्ता पादपाधो धृतो पराम् । परमानमा स्थाली सविण्डादिमण्डिताम् ॥ २० ॥ तचित्रं तत्र वीक्ष्याऽसौ चिन्तयामास मानसे । सिद्धं शुद्धमपि भोज्यं न युक्त दातृवनितम् ॥ ३१॥ ततो ब्याधुटिवस्त्रसादासाद्य गुरुमानमत् ।