Book Title: Bhadrabahu Charitra
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Jain Bharti Bhavan Banaras

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Page 77
________________ ममूटभापानुवाद। उन्हें नमरकार किया तथा वनमें जोकुछ देखा था उसे ज्योंकात्योंगुरूसे कह दिया। उससमय भद्रवाहस्वामीने अपने शिष्यकी प्रशंसाकी तथा बोले-वत्स ! तुमने यह बहुत ही अच्छा किया । क्योंकि जब दाता प्रतिग्रहादि विधिसे आहार दे तभी हमलोगोंको लेना चाहिये। दूसरे दिन फिर चन्द्रगुप्तिमुनि स्वामीको नमस्कार कर आहारके लिये दूसरे वृक्षोंमें गये । परन्तु वहां उन्होंने केवल भोजन पात्र देखा। उसी वक्तवहांसे लौटकर गुरुके पास गये और प्रणाम कर बीते हुये वृतान्तकों कह सुनाया । गुरूनेभी प्रशंसा कर कहा-भव्य ! तुमने यह बहुत ही अच्छा किया क्योंकि-साधुओंको अपने आप दूसरोंका अन्न ग्रहण करना योग्य नहींहै ॥ ___ इसी तरह तीसरे दिनभी गुरूके चरणपङ्कजोंको नमस्कार कर चन्द्रगुप्तिमुनि आहारके लिये गये । परन्तु उसदिन भी केवल एक स्त्रीको देखकर अपने आहारकी योग्यता न समझ कर शीघ्र ही लौट आये । गुरुके पास पातर सर्व ममाचष्टे गुरोः पुरः ॥ १२ ॥ गुरुणा गांगन गिन्नी परंगद • विदित परन । प्रनिग्रहादिविधिना दत्त दाना रे गवतं ॥ ३॥ चन्द्रगुप्तहिती. यह नत्यामहाराय बोगिनम । जगामान्यमहाजन नमालोटियम् ॥ १४ ॥ गावा गुरुवनमा तन ममराम्यत् । माणा गनिन: nिो भव्य भव्य स्वया ऋवम् ॥ १५ ॥ न युफ यतिनामनामनन्यायमेगनाम् । चन्द्रगतिस्तृतीयेहि प्रबन्ध गुरुप जम् ॥ ३५ ॥ फायरियाय पदाला सत्राप्यमानी

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