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भद्रवाहु-चरित्रकरके कहा-साधुओं ! अब मेरे जीवनकी मात्रा बहुत थोड़ी बची है इसलिये मैं तो यहीं पर इसी शैलकन्दरामें रहूंगा। आप लोग दक्षिणकी ओर जावें
और वहीं अपने संघके साथमें रहैं | स्वामीके उदासीन बचनोंको सुनकर श्रीविशाखाचार्य बोले-विभो ! आपको अकेले छोड़कर हम लोगोंकी हिम्मत जानेमें, कैसे होगी ? इतनेमें नवदीक्षित श्रीचन्द्रगुप्ति मुनि विनय पूर्वक बोले-आप इस विषयकी चिन्ता न करें मैं बारहबर्ष पर्यन्त स्वामीके चरणोंकी सभक्ति परिचर्या करता रहूंगा । उससमय भद्रबाहुस्वामीने-चन्द्रगुतिसे जानेके लिये बहुत आग्रह किया परन्तु उनकी अविचल भक्ति उन्हें कैसे दूरकर सकती थी। साधुलोगभी गुरु वियोगजनित उद्देगसे उद्देजित तो बहुत हुये परन्तु जब स्वामीका अनुशासन ही ऐसा था तो वे कर ही क्या सकते थेसो किसीतरह वहां से चले ही!.
ग्रन्थकारकी यहनीति बहुतही ठीक है कि-वेही षमाणाऽसौ पुनर्वचः । मदायुर्विधतेऽत्यल्प स्थास्थाम्यत शुद्दान्तरे ॥ ५॥ भवन्तो । विहरन्वसाइक्षिण पथमुत्तमम् । संशन महता साथै तत्र तिष्ठन्तु सौख्यत: ॥ ६ ॥. श्रुत्वा गुरुदितं प्रोचे विशालो गणनायकः । मुक्त्वा गुरुं कसं यामो वयमेकाफिनो विभो । ॥ ७॥ चन्द्रगुतिस्तदाबादीद्विभयानवदीक्षितः । द्वादशान्दं गुरोः पादो यंपासेऽतिमचितः ॥ ८॥ गुरुपा वार्यमाणेऽपि गुरुभकः स तस्थिवात् । गुरुशिष्टिक्वाइन्य तमाबेलतपोधनाःगुरोविरह भूतक्षुषा संव्यममानसाः।