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भद्रबाहु-परित्र। तो बारह वर्षकी कथाही क्याहै ? दीन हीन रङ्कादि दुखी पुरुषोंके लिये यथेष्ट दान देऊंगा फिर यह दुर्मिक्ष क्या करसकैगा ? ॥ ७७-७९ ।। इसकेबाद-माधवदत्त प्रार्थना करने लगा-दयानीरधि! पुण्यके उदयसे वृद्धिको प्राप्त हुई सर्व सम्पति मेरे पासहै सो उसे पात्रदानादिसे तथा समीचीन जिन धर्मके बढ़ानेसे सफल करूंगा। इतने में बन्धुदत्त बोला-देव ! आपके प्रसादसे मेरे पास बहुत धन है सो उसके द्वारा दान मानादि से जिनशासनका उद्योत करूंगा । इत्यादि सर्वसङ्घने . भद्रबाहु आचार्यसे प्रार्थना की । तब मुनिराज बोले
आपलोग जरा अपने मनको सावधान करके कुछ मेरा भी कहना सुनें-यद्यपि कल्पवृक्षके समान यह आपलोगों का सङ्घ सम्पूर्ण कामके करनेमें समर्थ है। परन्तु तौभी सुन्दर चारित्रके धारण करनेवाले साधुओंको यहां ठहरना योग्य नहीं है। क्योकि यहांअत्यन्त भयानक
वर्षशतेनापि न बीवन्त प्रदानतः । का वाता द्वादशाब्दाना तुच्छकालावलाम्यमाम् ॥ ७९ ॥ हीनदीनदखिम्यो ररववादिखिने । दासे यषेप्सितं धान्य दुर्भिक्ष किं करिष्यात 18.1 ततो माधवदचाख्यो विज्ञापयति मे प्रभो। वर्तते सकला संपत्प्रतीता पुण्यपोषिता ॥ ८५ ॥ तत्साफल्यं विधास्यामि पात्रदानादिमिर्मशम् । सद्धर्मबृहणेनापि पन्धुदत्तलतोऽवदत् ॥२॥ देव | देवप्रसादेन सन्ति में विपुला: चियः । विषाखे शासनोद्योतं धानमानक्रियादिभिः ॥ ३॥ इत्यादिसकल: सहयषी विज्ञापितोऽववीत् । समाधाय मनः श्राखा ! महूचा ऋणुतादयत् ॥ ४॥ सय सुरक्षामा समर्थः सर्वकर्मसु । तथापि नात्र योग्यास्था चारचारित्रपारि