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समूळभावानुवाद। ३९ सङ्घने स्वामीके बचन सुने तो परन्तु हाथ जोड़कर फिर स्वामीसे प्रार्थनाकी ॥ ७२ ॥ नाथ! यह सर्वसङ्घ धनधान्यादि विभूतिसे परिपूर्ण तथा समस्त कार्यके करनेमें समर्थ है और धर्मका भार धारण करनेके लिये धुरन्धर है ||७३|| सो हम उसीतरह कार्य करेंगे जिसप्रकार धर्मकी बहुत प्रवृति होगी । आपको अनावृष्टिका • विल्कुल भय नहीं करना चाहिये । किन्तु यही अच्छा है जोआप निश्चल चित्तसे यहीं निवास करें ॥ ७ ॥ उससमय कुबेरमित्र शेठ बोला-नाथ आपके प्रसादसे मेरे पास बहुत धन है, जो धन दान दिया हुआ भी कुबेरके समान नाशको प्राप्त नहीं होगा। मैं धर्मके लिये मनोभिलषित दान करूंगा ।। ७५-७६ ॥
इतनेमेजिनदास शेठ भी मधुरवाणीसे बोले-विभो !. मेरे यहां भी नानाप्रकार धान्यके बहुतसे कोठे भरे हुये हैं। जो सौवर्ष पर्यन्त दान देनेसे भी कम नहिं होसकते
श्रुत्वा सलकसदेन गिरं गुरुमुखोदितम् । करो अमलता नीत्वा गणी विज्ञापितः पुनः ॥ ५॥ मगवन ! सर्वसतोखि धनधान्यपूरितः । विश्वकायको दक्षा धर्मभारपुरन्धरः ||४|| विधासामस्खया यदर सालन्तवर्धनम् | नारपि भेतभ्यं स्थातव्यं सिरचेतसा ॥ ५ ॥ श्रेष्पी कुचरमित्राख्यदव समुदाहरत् । विपुलं वियते वित्तं लप्रसादेन में किल । || नशाणतामेति पदस्पद मदनम् । दासे ययितं दान धर्मकमांदिहेतवे ||७७ जिनदासलत: श्रेष्टी प्रांचे मत्या गिरा । कोष्टा विविधधान्याला विरान्त विपुला मम ॥४॥