Book Title: Bhadrabahu Charitra
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Jain Bharti Bhavan Banaras

View full book text
Previous | Next

Page 22
________________ (१८) वरहकी विभीषिका है। यदि हमें कोई यह बात सिद्ध करके बचागे कि-दिगम्बर धर्म आधुनिक है। इसका समाविर्भाव विक्रमकी दूसरी शताब्दिमें हुआ है तो हमें दिगम्वर धर्मसे ही कोई प्रयोजन नहीं है किन्तु प्रयोजन है अपने हितसे सो हम फौरन अपने भवानको दूसरे रूपमें परिणत कर सकते हैं। परन्तु सायही हमारे सर को हुये वचनों का भी पूर्ण खयाल रहे । केवल अपने प्रत्यमात्रके लिखनेसे हम कमी इसे सप्रमाण नहीं समझेंगे । यदि लिखने मात्र पर ही विश्वास कर लिया जाय.तो संसारके ओर २ मताने ही क्या विगाहा है जो अवहेलनाके पात्र समझें जाय। __इस पर प्रश्न यह होसकता है किजैसे तुम्हें अपने धर्म पर लिखेहुपका विश्वास है वह भी वो लिखा हुमा ही है नीवेशक वह लिखा हुमा है और उस पर हमारा पूर्ण विश्वास भी है। क्योंकि वह इमारी. परीक्षामें शुद्ध रन बचा है। और यही कारण है कि-दूसरे पर अभद्धा है। परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि हमें कोई यह बात समझा कि दिगम्बर धर्म माधुनिक और जीवोंका महित करने वाला फिर भी इस पर प्रधान रहे । अन्यथा हम तो यही अनुरोध करते हैं और करते रहेंगे कि सबसे पहले यह विचारना बरी है कि-जीवका वास्तविक हित किस धर्मके धारा होसकता है और कौन धर्म ऐसा है जो संसार में निरावाध है ? इस विषयको गवेपणामें लोगोंको निष्पक्षपाती । होना चाहिये और नीचेकी नीति चरितार्थ करना चाहिये चार इस इव सीरं सारं गृहाति सज्जना। स्याश्रुतं यथारच्यं शोच्यानां हि कृतिर्मता ।। वैदिक सम्प्रदायके महाभारतादि प्राचीन प्रन्योंके अनुसार यह बात अच्छी वरह सिद्ध कर चुके हैं कि-दिगम्बर धर्म श्वेताम्बर धर्मसे प्राचीन है और दिगम्बरों ही में से इसकी संसारमें नवीन रूपसे अब. तारणा हुई है । वह केवल अपनी सामर्थ्य के हीन होनेसे। क्योंकि यदि उनकी सकिका हास न होता वोमपेशाब विहिवजिनकल्पका बनादर करते और न उन्हें अपने नवीन मतके चलाने की जरूरत पड़ती।

Loading...

Page Navigation
1 ... 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129