Book Title: Bhadrabahu Charitra
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Jain Bharti Bhavan Banaras

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Page 50
________________ २० भद्रबाहु चरित्र - को प्रकाशित किया जैसे चन्द्रादिके तेजको दबाकर सूर्य अपना तेज प्रकाशित करता है ||१५|| बुद्धिमान भद्रबाहुने अपनी विद्याके प्रभावसे सभामें बैठे हुये समस्त राजादिको प्रतिबोधित करके जैनमार्गकी अत्यन्त प्रभावनाकी ॥ ९६ ॥ भद्रबाहुके इसप्रकार प्रभाव को देख कर राजाने जिनधर्मको ग्रहण किया और सन्तुष्टचित्त होकर उसके लिये - वस्त्राभूषण पूर्वक बहुत धन दिया ||१७|| बाद वहांसे भद्रबाहु अपने गृहपर आया । न कोई ऐसा वाग्मी है, न कोई वादी है, न कोई शास्त्रका जानने वाला है, न कोई ज्ञानवान है तथा न कोई ऐसा विनय शाली है, इसप्रकार बुद्धिमानों के द्वारा प्रसिद्धिको प्राप्त हुये बुद्धिशाली भद्रबाहुने एकदिन अपने मातपितासे विनय पूर्वक कहा - || ९८ ॥ ९९ ॥ तात ! मैं संसार भ्रमणसे बहुत डरताहूं । इसलिये इससमय तपग्रहण करनेकी इच्छा है । यदि प्रीतिपूर्वक आज्ञा देतो सुख प्राप्तिके अर्थं तप ग्रहण करूं ॥ १००॥ इसप्रकार पुत्रके तेजी निजमाविवकार सः । महोदयो विशुद्धात्मा चन्द्रादीनां यथा रविः॥९५ प्रतियोग्य महीपादस्तत्र जनप्रभावनाम् । अकाषीनितरां धीमानात्मविद्याप्रभावतः ॥ ९६ ॥ गृहीतजिनमार्गेण भूभुजा तुष्टचेतसा । दतं बहुधनं तस्मै श्रीमाभरणपूर्वकम् ॥९७॥ ततः स्वावासमापाऽखी नेहम्बाम्मी कविर्भुवि। वादी भागमकः कोऽपि विज्ञानी विनयी पद ॥ ९८ ॥ इत्थं संवर्णितः ख्यातिं परामाप युध्ोत्तमैः । एकदां पितरौ प्रोक्रे प्रश्रयात्वद्विरा सुधीः ॥ ९९ ॥ सवत्रमण भीतोऽहं संगितस्ततोऽधुना । आज्ञाप्रयान्ति चेत्रीत्या तर्हि गृहामि शर्मणे || १००|| भाषितं भाषितं ताभ्यां श्रुत्वेच

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