Book Title: Bhadrabahu Charitra
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Jain Bharti Bhavan Banaras

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Page 51
________________ समूलभाषानुवाद । दुःखकारी वचनोंको सुनकर मातापिताने कहा-पुत्र ! इस प्रकार निष्ठुर बचन तुम्हें कहना योग्य नहीं! ॥१.१॥ प्यारे ! अभी तुम समझते नहीं अरे ! कहाँ यह केलेके गर्भ समान अतिशय कोमल शरीर ? और कहाँ अच्छे २ सत्पुरुषों के लियेभी दुर्लभ असह्य व्रतका ग्रहण ॥१०॥ अभीतो बिल्कुल तुम्हारी बाल्यावस्था है इसमें तो पञ्चन्द्रियसमुत्पन्न सुखोंका अनुभव करना चाहिये। इसकेबाद वृद्धावस्था तपग्रहण करना ॥१.३॥ मातापिताके वचनोंको सुनकर सरल हृदय भद्रबाहु बोला-तात ! आपने कहा सो ठीकहै परन्तु व्रतधारण किये बिना यह मानवजीवन निष्फल है, जैसे सुगन्धक बिना पुष्प निष्फल समझा जाता है।॥१०॥देखो!-मोही पुरुषोंके देहको ग्रहण करनेके लिये एक ओर तो मृत्यु तयार है और एक ओर वृद्धावस्था तयार है तो ऐसे शरीरमें सत्पुरुषोंको क्या आशा होसकतीहै॥१०॥और फिर जब जरासे जर्जरित तथा तृष्णाके स्थान इस शरीरमें वृद्धा सद तुजः । दंते बचो वक्तुं न युकं निमुरं कटु ॥ १.१॥ पुत्र ! पुग्ने कदलीगर्भवन्मूदु । काऽयं यताहोऽसो महतामपि दुद्धरः ॥१.२॥ मुस्याइ. पुनामुर्खपाल्ये पोन्दियसमुद्भवम् ।ग्रहणीयं ततःसूनो वादिषये विमलं सपा-1 परखदीयमाकपानवांतातं सदाशयः । मतहीन पा तातनाय निगन्यपुष्पपद ॥ १४ ॥ एकतो प्रसते मृत्युरेकतो प्रसते जरा मोहिना देहिना देह कामया तत्र महामनाम् ॥ १.५॥ मादिकमध्ये पुनः पाते जागरिताइके तात!

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