Book Title: Bhadrabahu Charitra
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Jain Bharti Bhavan Banaras

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Page 57
________________ दितीय परिच्छेद । पथात् श्रीगोवईनाचार्य-नानाप्रकार तपश्चरण कर अन्तमें चार प्रकार आहारके परित्याग पूर्वक चार प्रकारकी आराधनाओंके आराधनमें तत्परहुये और समाधि पूर्वक शरीरको छोड़कर देव तथा देवाङ्गनाओंसे युक्त और उत्कृष्ट सम्पत्ति शाली स्वर्गमेंजाकर देव हुये॥१॥२॥ उधर श्रीमद्रबाहु आचार्य-अपने समस्त संघका पालन करते हुये भव्य मनुष्योंको सन्तुष्ट करते हुये तथा दूसरे मतोंको बाधित ठहराते हुये शोमते थे ॥३॥ तथा पृथ्वी मण्डलमें आनन्द बढ़ाते हुये और धर्मामृत वर्षाते हुये श्रीभद्रबाहु मुनिराज-ताराओके समूहसे युक्त जैसा चन्द्रमा गगनमण्डलमें विहरता रहता है उसीतरह पृथ्वीवलयमें विहार करने लगे nan द्वितीयः परिच्छेदः। गणी गोवईनवाव विषाय विविध समाप्रान्ते प्रायं समादाय पाएभनारत: समापिनासुसज्य प्रपदे रिशासदम् । देवदेवागणमुष्टं पु परमसम्पदा ॥ २ ॥ ततो गणाधिपो भद्रः पोषयन्सक गणम् । तोपपग्निविडाभयान्तपन्दुर्मतं वाकुवलयानन्द सिल्पामतं मुवि । मुनितारागणाकीर्णः शशीन विवहार सः ॥ भवन्तीविषमाप विनितापमान।

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