Book Title: Bhadrabahu Charitra
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Jain Bharti Bhavan Banaras
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भद्रबाहु-परित्र। . उधर शुद्ध हृदय भद्रबाहु आचार्य--अनेक देशों में विहार करते हुये बारह हजार मुनियोंको साथ लेकर भव्य पुरुषोंके शुभोदयसे उज्जयिनीमें आये और पुर चाहिर उपवनमें जन्तु रहित स्थानमें ठहरे ॥१८॥१९॥ साधुके महात्म्यसे वन-फल पुष्पादिसे बहुत समृद्ध होगया । वनपाल-मुनिराजका प्रभाव समझकर वनमेसे नाना प्रकार फल पुष्पादि लेकर महाराजके पास गया और उनके आगे रखकर सविनय मधुरतासे बोला-देव! आपके पुण्यकर्मके उदयसे मुनिसमूहसे विराजमान श्रीभद्रबाहु महर्षि उपवनमें आये हुये हैं। वनपालके बचन सुनकर महाराज चन्द्रगति अत्यन्त
आनन्दित हुये। जैसे मेषके गर्जितसे मयूर आनन्दित होता है। उससमय राजाने वनपालके लिये बहुत धन दिया और मुनिराजके अभिवन्दनकी उत्कण्ठासे नगर भरमें आनन्द मेरी दिलवाकर गीत नृत्य वादिन अपाऽसौ विविषान्देशान्विहरन् गणनायकः । विवादशसहस्रेण मुनिमिः संयुतःशुमार ॥१॥विशालापुरमायातस्तस्थिवान्भव्यपुण्यतमतत्र निनन्तकस्थाने बायोपानेशमाभयः॥१८॥ फलितं तत्मभावेन वनं नानाफलोत्करै । वनपाखतो हाला सन्महात्म्य महामुनेः ॥ १९ ॥ फलादिकं ततो डाला जपाम भूपसानिधिम् । भुमादिकं पुरस्कय जगाद वचनं परम् ॥२०॥ राजस्वदीपपुण्येन भद्रबाहुणामणीः । भावगाम लगाने मुनिसन्दोहसंयुतः ॥ ११॥ समाकर्ण्य वचखास चन्द्रगतिषि
आपतिः । परमामुदमाप शिखांव घननिखनं ॥ २९ ॥ बहु वितं ददौ तसे चिकी(गणिवन्दनाम् । मानन्दमेरिका रम्या दापयित्वा मराषिपः ॥ २३॥ गीतमनवायः धामन्तादिनपर्युतः । निजंगाल महाभूला बन्दित संमताधिपम् ॥३॥

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