Book Title: Bhadrabahu Charitra
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Jain Bharti Bhavan Banaras

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Page 48
________________ भद्रबाहु चरित्र | प्रार्थना कर और उनकी आज्ञा लेकर कृतज्ञ तथा सम्यक्त्व रूप सुन्दर भूषणसे विभूषित भद्रबाहु-गुरु महाराजके चरणोंको बारम्बार नमस्कार कर " गुरु माता के समान हितके उपदेश करने वाले होते हैं" इत्यादि उनके गुणोंका चित्तमें संचिन्तवन करता हुआ अपने मकान पर गया । यह बात ठीक है कि जो सत्पुरुष होते हैं वे गुणानुरागी होते हैं ॥ ८३ ॥ ८५ ॥ उस समय माता पिता भी अपने सुपुत्र भद्रबाहुको रूप यौवनसे युक्त तथा सुन्दर विद्याओंसे विभूषित देखकर बहुत आनन्दको प्राप्त हुये ॥ ८६ ॥ यह बात ठीक है कि- सुवर्णकी मुद्रिकामें जड़ा हुआ मणि आनन्द को देता ही है । बाद आनदिन्त भद्रबाहुके मातपिता ने पुत्रका दोनों हाथोंसे आलिहून कर परस्परमें कुशल समाचार पूछे। भद्रबाहु भी अपनी विद्याओंके द्वारा समस्त कुटुम्बको आनन्दित करता हुआ वहीं पर अपने गृहमें रहने लगा ॥ ८७ ॥ ८८ ॥ किसी ટ यदि वहिं यामि निजालयम् । निगद्येति गुरोराज्ञामादाय स कृतकः ॥८३॥ - नामं नामं गणाधीशपादाम्बुजयुगं मुदा । हितोपदेश मातेव वालस्य निलो गुरुः ॥ ८४ ॥ इत्यादितद्गुणांश्विते कुर्वन्सम्यक्त्वभूषणः । श्राजगाम निजागार सन्तो हि गुणरामिणः ॥ ८५ ॥ रूपयौवनसम्पन्नं हृद्यविद्याविभासुरम् पितरौ स्वात्मकं वीक्ष्य परमां मुदमाभतुः ॥ ८६ ॥ नानन्दयति किं हेममुदिकाटियो मणिः । पितरौ तं परिष्वज्य दोम्यों सम्प्रीतचेतसो ॥ ८७ ॥ क्षेमादिकं मियः पुष्ट्या तस्थिवान्स स्वसद्मनि । विद्याविनोदैर्घन्धूनामानन्दं जनयन्यृशम् ॥ ८८ ॥ तत्रा I

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