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भद्रबाहु चरित्र
कल्याणके निलय भव्यात्मा महाराज श्रेणिक, हैं । और उनकी कान्ताका नाम चेलनी है ॥ ९ ॥ एकसमय महाराज श्रेणिक - वनपाल के मुख से विपुलाचल पर्वत पर श्री महावीर जिनेन्द्रका समवशरण आया सुनकर उनके अभिवन्दनकी अभिलाषासे गीत नृत्य वादिनादि प्रचुर महोत्सव पूर्वक (जिनके द्वारा समस्त दिशायें शब्दमय होती थीं) चले ॥ १०-११ ॥ और देवता लोगोंसे महनीय तथा केवलज्ञान रूप उज्वल कान्तिके धारक श्रीवीरजिनेन्द्रका समवलोकन कर तथा स्तुति नमस्कार पूजन कर मनुष्यों की सभा में बैठे ॥ १२ ॥
वहाँ जिन भगवानके द्वारा कहे हुये यति और श्रावक धर्म का स्वरूप विनय पूर्वक सुना तथा करकमल-मुकुलित कर नमस्कार पूर्वक पूछा- देव ! इस भारतवर्ष में दुःषम पञ्चम कालमें मागे कितने केवलज्ञानी तथा कितने श्रुतकेवली होंगे? और आगे क्या क्या होगा ! ॥ १३-१४ ॥
नताशेषनृपश्रेणिः श्रेणिकः श्रेयसो निधिः । भावुकः पालकस्तस्य बेलनी महपीशिता ॥ ९ ॥ एकदाऽसौ विशांनाषो विदित्वा वनपालतः । विपुलाउदो महावीरसमचसृतिमार्गताम् ॥ १० ॥ परानन्दमापन्नोऽचेयं विवन्दिपुः । तौर्यत्रिकवरारानवधिरीकृतदिङ्मुखम् ॥ ११ ॥ निरीक्ष्य सुरसंसेव्यं केनलोज्नवरोचिषम् । स्तुत्वा मत्वा समम्बर्च्य तस्थिवानरसंसदि ॥ १२ ॥ द्विघा धर्मे जिनोद्गीतमधावांप्रायान्वितः । प्रणिपत्य ततोऽयाक्षीत करो मुकुलयन्नृपः ॥ १३॥ देवाऽत्र दुःषमे काले केवल श्रुतबोधनाः नियंतोऽये भविष्यन्ति किं किं वान्ते भविष्यति ॥ १४ ॥ श्रुत्वा तदीनं व्याहार
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