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समूलभाषानुवाद।
लोक तथा अलोकके अवलोकनके लिये प्रदीपकी समान जिनवाणी (सरस्वती)हमारे पाप रूपरजका नाश कर निरन्तर निर्मल बुद्धि प्रदान करे ॥ ४॥
संसार समुद्र में पवित्र आचरण रूप यानपात्रके द्वारा गौरव को प्राप्त हुये साधुओंके पदपङ्कज मेरे मनोभिलषित अर्थकी सम्प्राप्तिके करने वाले होवें ॥ ५ ॥
ग्रन्थकार साधुराज रत्नकीर्ति महाराज अपनी लघुता बताते हुये कहते हैं कि यद्यपि मैं ग्रन्थ निर्माण करनेकी शक्तिसे रहित हूं तथापि गुरुवर्यकी उत्तेजनासे जैसा उनके द्वारा भद्रबाहु मुनिराजका चरित्र सुना है उसे उसीप्रकार कहूंगा ॥६॥ जिसके श्रवण से-मूर्ख बुद्धियों के मिथ्या-मोहरूप गाढान्धकारका नाश होकर पवित्र जैनधर्ममें निर्मल बुद्धि होगी ॥७॥
इस भरतक्षेत्र सम्बन्धि मगधदेशमें अलकापुरीके समान राजगृह नगर है॥ ८॥ उसके पालन करने वाले जिन्हें समस्त राजमण्डल नमस्कार करते हैं तथा
नो निलं तनोतु विमला मतिम् ॥ ४ ॥ खेयार्थसिद्धिकरमाधरणाः सन्तु गौरवाः । गौरवासाः सुचरणस्तरण भवाम्युधा ॥ ५॥ शकपा होनोऽपि पायेऽई गुरुभकपा प्रणोदितः। श्रीमद्रयाहुचरितं यथा पतं गुरुजितः ॥ ६ ॥ यसतं मुग्यपुतीनां मियामोहमहातमः । धुनुते तनुते शुद्धां अनमागेऽमा मतिम् ॥ ७॥भपाऽम भारते व विषये मगधामिये। पुरं राजगृह भाति पुन्दपरोपमम् ।