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नमः श्रीभद्रबाहु नये
श्रीभद्रबाहु-चरित्र॥
(सभाषानुवाद) श्रीशशिविशद जिनेशपद कुगति भ्रमण दुख ताप ॥ हरकर, निजचतन्यगुण करहु दान गतपाप ! ॥१॥ त्रिभुवन जन सुब भक्ति-वश त्रिभुवनफे अवतंस ।। हुये, प्रभो ! अब क्यों न मुझ पर करुणा है अंश १ ॥२॥ दिनमणि मी तुव कान्तिसे निवल कान्ति के नाय! ॥ चूरहिं जगतम, वो न क्यों हरहु हृदय तम । नाय! ॥३॥ जनश्रुति शशि शीतल कहैं मुझे न यह स्वीकार ।। जनन-ताप मिटवा नहीं फिर यह क्यों निरधार ! ॥en इस अपार सन्तापके हुये विनाशक आप ।। ' विहिं मृगाङ्क शीतल प्रभो ! कह लाये जग आप ॥५॥
गुण मुक्तामणि रत्नके पारावार अपार ॥ गुण मुक्कामणि दान कर नाथ ! करहु भवपार ॥६॥ इह विध माल-भव-शुभ-विधि-अमाव व विघ्न । है निरास, इह ग्रन्थ शुभ हो पूरण निर्विन ॥ ७॥ नाय ! सुविनय अनायकी सुनकर करुणापूर ।। अवलम्बन कर कमलका देकर कालिक विचूर ॥८॥ रत्लकीर्ति मुनिरानने रचौ सुजन हित हेतु ॥ भद्रबाहु मुनि विलक हत सोमव नीरधि सेतु ॥ ९ ॥ विहिं भाषा मैं मन्दधी मूल ग्रन्थ अनुसार । लिखहुँ कहीं यदि भूल हो शोषहु सुजन विधार ॥१०॥