Book Title: Bhadrabahu Charitra
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Jain Bharti Bhavan Banaras

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Page 39
________________ समूलमापानुबाद। जिसमें-अतिशय उन्नत २ शिखरवाली हर्यश्रेणियें ऐसी मालूम पड़ती हैं समझिये कि-अपने ध्वजा रूप हाथोंसे चन्द्रमाका कलंक मिटाने के लिये खड़ी हैं ॥३१॥ जिस नगरीमें-निर्मल, सुकृतके समूह ममान भव्यपुरुषों के द्वारा सेवनीय जिन चैत्यालयांक शिखर सम्बन्धि अनेक प्रकार महा अमौल्य-मणि-माणिक्यसे जड़े हुये सुवर्णों के कलशोंकी चारों ओर फैलती हुई किरणों से गगन मंडलम विचित्र चन्द्रोपक (चंदोवा) की शोभा हाती थी ॥३२-३३॥ जिस नगरीमें दानी लोग यद्यपि थे तो दयाशाली परन्तु विचार कुवेरकोतो निर्दव होकर निरन्तर महापीड़ा करते थे । भावार्थ-वहाँके दानी लोग धनदसे भी अधिक उदार थे॥३॥ जिन लोगों का धन तो जिन पूजादिमें व्यय होता था, चित्त जिनभगवान्के धर्ममें लीन रहता था, गमन अच्छे २ तीर्थोकी यात्रा करनेके लिये होता था, कान जैन शास्त्रों के श्रवणमें लगते थे, वे लोग स्तुति गुणवानोंकी करते थे तथा ननस्कार जिनदेवके चरणामें करते फेतुहस्तः समुबताः ।।३॥ नानानेकनहानप्यमणिमाणिश्नमस्तिः नानक फुम्भारप्रसारकिरणोत्तरः ॥३३॥ विविसिषयोल्लोचश्रियं बकुनै भो । विशदाः पुण्यपिण्डामा मयसेय्या जिनालयाः ॥ १३ ॥ युग्मम् पनयास्यागिनो लोकाः सदया अपि निर्दयम् । दुराधि धनपस्थापि मममा. निरन्तरम् ॥ ३४ ॥ वित्तं येपी जिनज्यादौ चितं येषां पंऽनः । गति

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