Book Title: Bhadrabahu Charitra
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Jain Bharti Bhavan Banaras

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Page 26
________________ मति (१२) सिद्ध करेंगे । पाठक थोड़े समयके लिये हमें अपनी क्षमाका भाजन बनाएँ । हमने यह प्रस्तावना ठीक रनिषेयके अभिप्रायसे लिखी है।हमारी यह इच्छा नहीं है कि हम किसीके दिलको दुःखाचे । परन्तु सत्य श्रृंठ के निर्णयकी परीक्षा करनेका अवश्य अनुरोध करेंगे । और इसी भाशवसे हमने लेखनी उठाई है । बदि कोई महाशय इसका समय उत्तर देगे तो उस पर, अवश्य विचार किया जायगा । बस इतना पह कर हम अपनी प्रस्तावमा समाप्त करते हैं और साथही-- गच्छता सखलन कापि भवत्येव प्रमादतः। इसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति सजनाः || इस नीति के अनुसार क्षमाकी प्रार्थना करते हैं। क्योंकि-- . न सर्वः सर्वे जानाति इसलिये भूल होना छदस्यों के लिये साधारण बात है। बुद्धिमानों को उस पर खयाल न करके प्रयोजन पर दृष्टि देनी चाहिये। भद्रबाहुचरित्रकी हमें प्रतियें मिली है परंतु वे दोनों बहुधा अशुद्ध हैं। इसलिये संस्कृत पाठके संशोधनमें हम कहां तक सफल मनोरथ हुवे है इसे पाठकही विचारें । तब भी बहुत ही अशुद्धियोंके रहनाने की संभावना है। उन्हें पुनरावृत्तिमै सुधारनेका उपाय करेंगे । हिन्दी अनुवादका यह हमारा दूसरा धन्य है । अनुवाद जहां तक होसका सरल भाषामें करनेका उपाव किया है पाठकोंको यह कहां तक कचि कर होगा इसका हमें सन्देह है। क्योंकि हमारी भाषा वैसी नहीं है जो पाठकों के दिलको लुमाकै । अस्तु, नौ भी मूल मन्थका तात्पर्य वो समझमे मा ही जावैगा । अमी इतने ही में सन्तोष करते हैं। ता०१७।३।१) जातिकादासकाशी उदयलाल जैन काशीवाद।

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