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4/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि एवं सार्वजनीन ज्ञान पर निर्भर है। अज्ञान अन्धकार के समान है। जहाँ अंधकार होता है, वहाँ सब कुछ होने पर भी कुछ भी ज्ञात नहीं होता। बंद कमरे का द्वार खोलने पर उसमें रखे पदार्थ तभी जाने जा सकते हैं, जब उसका अंधकार दूर हो । यह अन्धकार नेत्रों से ही दूर होता हो, ऐसी बात नहीं है। हमारी अन्य इन्द्रियाँ भी उसे मिटाती हैं। आवश्यकता इसी बात की है कि ये इन्द्रियाँ सही ढंग से वस्तुओं को प्रमाणित करने की क्षमता रखती हों। उदाहरणार्थ, हम अन्धकार में भी स्पर्श, श्रवण, गन्ध आदि से वस्तुओं का पता लगा सकते हैं, किन्तु पूर्ण ज्ञान के लिए हमारे ये ज्ञान-चक्षु भी पर्याप्त नहीं हैं। हमें पूर्ण ज्ञान के लिए अन्धकार को मिटाना होता है। अत: शोध का प्रथम उद्देश्य इस अन्धकार को मिटाना ही है, जो वस्तुओं के मूल रूप को आवरित रखता है।
वस्तुओं के मूल रूप को समझने के लिए हमें उन पर छाई धूल-मिट्टी को साफ करना होता है। मिट्टी में दबा सोना भी तब तक सही ढंग से नहीं परखा जा सकता, जब तक उसको शुद्ध न कर लिया जाए। जब वह अग्नि में तपकर परिशोधित हो जाता है, तभी वह स्वर्ण के रूप में अपनी पहचान करा पाता है और तभी वह ग्राह्य बनता है। जो वस्तु शुद्ध होकर ग्राह्य बन जाती है, वही मानव-जीवन में उपयोगी सिद्ध होती है। इस प्रक्रिया में विष भी रोग-निवारण में सहायक औषध बन जाता है। अतः शोध का प्रमुख उद्देश्य हैवस्तुओं और उनसे सम्बन्धित ज्ञान को उपयोगी बनाना, ताकि वे मानव जीवन में व्यवहार योग्य बन सकें । उपनिषद् में एक स्थान पर उल्लेख आता है कि
"हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्य अपिहितं मुखम्।”
निश्चय ही सत्य अज्ञान के आवरण में छिपा रहता है। “हिरण्यमयपात्र” माया का प्रतीक है । दार्शनिकों ने माया को बहुत महत्त्व दिया है । यह संसार माया या अज्ञानजन्य है। लेकिन जो जन्य है, वह है अवश्य । उसे “है" अर्थात् “सत्य” को अज्ञान से मुक्त करना ही शोध का उद्देश्य है । ब्रह्म कहाँ नहीं है ? मैं,वह, तुम सब में तो वही है,पर उसे पहचाना कैसे जाए ? माया जो छाई हुई है,संसार में सर्वत्र अज्ञान जो फैला हुआ है । इस अज्ञान से पीछा तभी छूट सकता है, जब हम शोध की प्रक्रिया को निरन्तर चलाते रहें।
___ अत: दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि शोध का परम उद्देश्य निरन्तर अज्ञान को मिटाते हुए ज्ञान का प्रकाश फैलाते चलना है।
जो लोग शोध का उद्देश्य कहीं विराम पा लेना मानते हैं, वे भ्रम में हैं। जैसा कि मैंने पहले कहा, यह एक निरन्तर प्रक्रिया है। ज्ञान की कोई सीमा नहीं है और इसीलिए शोध का भी कोई सीमित उद्देश्य या लक्ष्य नहीं है । विज्ञान में शोध के परिणामों को शाश्वत मानकर जो लोग सन्तोष कर लेते हैं, वे गहरे अन्धकार में हैं। मानविकी तथा समाजशास्त्र के विषयों में भी शोध के उद्देश्यों की कोई एक सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती।
जिस प्रकार विज्ञान में पहले अणु को पदार्थ का न्यूनतम अंश माना जाता था, किन्तु शोध की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहने से यह तथ्य सामने आया कि परमाणु ही न्यूनतम
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