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60/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि पर निर्णय देने वाला न्यायाधीश अपनी इच्छाओं का आरोप करने में असमर्थ होता है, उसी प्रकार समालोचक आत्म-साक्ष्य के आधार पर जो निर्णय करता है, वे सदैव निर्दोष ही हों, यह आवश्यक नहीं। किन्तु शोधार्थी शोध की वस्तु-परक पद्धति से काम लेने के कारण निर्दोष निर्णय देने के लिए बाध्य होता है । अगर वह ऐसा नहीं करता, तो उसका शोध कार्य स्वीकार्य नहीं हो सकता। अतः स्पष्ट है कि समालोचक की कार्य-पद्धति में आत्म-परकता अधिक होने से निष्पक्षता का अभाव रहता है, जबकि शोध की पद्धति में वस्तु-परकता होने से पक्षपात के लिये अवकाश नहीं होता। जहाँ उसमें पक्षपात होता है, वहीं वह अपनी अर्थ-सीमा से बहिष्कृत हो जाती है।
आत्म-परकता के कारण ही समालोचना में कभी-कभी जो निर्णय दिये जाते हैं, वे अध्ययन के फलस्वरूप न दिये जाकर आरम्भ में ही प्रस्तुत कर दिये जाते हैं और उनके समर्थन में कृति के संदर्भ तोड़कर उदाहरण दिये जाते हैं । शोध-सामग्री में प्रस्तुतिकरण और विश्लेषण-विवेचन के पश्चात् ही सदा निष्कर्ष दिये जाते हैं।
समानता के तत्त्व : एकता का भ्रम
___शोध और समालोचना दोनों का विषय साहित्यिक कृति या कृतिकार होता है। दोनों के लिए निरीक्षण-विवेचन की अपेक्षा रहती है। दोनों के लिए प्रतिभा, ज्ञान और रुचि के समान तत्त्व आवश्यक होते हैं। दोनों के लिए विषय से सम्बन्धित सन्दर्भो की विस्तृत और व्यापक जानकारी आवश्यक होती है । अतः कभी-कभी दोनों में समान कार्य का आरोप हो जाता है और सिद्धान्त रूप में दोनों के कार्य भिन्न होने पर भी व्यवहार में दोनों एक मान लिये जाते हैं। यह शोध-क्षेत्र का भ्रम है और समालोचना क्षेत्र का विवेक है। समालोचक अगर शोध के विश्लेषणों से अपने कार्य को अलंकृत करता है, तो उसका कार्य निर्दोष हो जाता है, किन्तु जब शोधार्थी समालोचना की पद्धति और स्तर तक अपने श्रम को सीमित कर देता है, तब वह जो भी निर्णय देता है, वे भ्रान्त हो जाते हैं तथा उनसे ज्ञान-परिधि विस्तार में सहायता उस सीमा तक नहीं मिलती,जिस सीमा तक शोध में मिलनी चाहिए। अतः शोध को समालोचना के समान न मानने का भ्रम त्यागकर उसकी सीमाओं को निर्दोष रखना परमावश्यक है।
उपसंहार
हिन्दी में साहित्य की शोध का जितना कार्य है, उसमें से अधिकांश अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं । किन्तु शोध और समालोचना को समान मानकर जिन लोगों ने कार्य किया है,वह निर्दोष नहीं है । कतिपय प्रकाशित (और अप्रकाशित भी) शोध-प्रबन्ध ऐसे हैं, जिनमें सामग्री-संकलन और विवेचन-विश्लेषण तो है, परन्तु उपलब्धियाँ नहीं है। कतिपय शोध-प्रबन्धों में केवल समालोचना करके आत्म-निर्णयों की स्थापना कर दी गई है, शोध विषय से निचोड़ कर वे निर्णय नहीं हुए। किन्तु ये सब समालोचना-प्रयास ही कहे जायेंगे। शोध का क्षेत्र इनसे सीमित नहीं होता।
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