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12 साहित्यिक अनुसंधान एवं पाठालोचन
साहित्य वाणी से शब्द और अर्थ के रूप में उत्पन्न होता है । कानों से सुनकर उसको प्राप्त किया जाता है। यह साहित्य की मौखिक प्रक्रिया है। जब लिखने की कला का आरंभ नहीं हुआ था, तब साहित्यिक रचनाएँ इसी रूप में बोली अर्थात् सुनाई जाती थीं और सुनने वाले उन्हें स्मरण करके दूसरों को सुनाते थे। लेकिन इस प्रकार कहने और सुनने के माध्यम से रचनाओं के स्वरूप में परिवर्तन भी आ जाता था। इसीलिए उस समय के ऋषियों ने इस बात पर बल दिया कि हर शब्द को शुद्ध पढ़ा या बोला जाये और उसे शुद्ध रूप में ही ग्रहण करके याद रखा जाये । वेद के मंत्रों को पढ़ने और याद रखकर दूसरों को सुनाने के लिए इस बात पर इसीलिए बहुत बल दिया गया कि जो अधिकारी हो वही वेद-मंत्र का उच्चारण करे और जो सुनकर ठीक याद रख सके, वही वेद-मंत्र पढ़े या सुने।
• जब लिखने की कला का आविष्कार हो गया, तब लिखे हुए को पढ़ने की समस्या उत्पन्न हुई, क्योंकि लिखे हुए को ठीक रूप से पढ़ना आवश्यक था। जिसने लिखा, उसके उच्चारण का पता नहीं, फिर सही उच्चारण कैसे हो ? किसी शब्द को सही अर्थात् शुद्ध रूप में बोलने की जो परम्परा मिली, उसी को आधार मानकर उसका उच्चारण निश्चित किया गया। इस प्रकार निश्चित किये गये रूप में उस शब्द को सभी लोग समान ढंग से शुद्ध लिखें, यह सावधानी आवश्यक हो गई। शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ यह समस्या बढ़ती ही चली गई। रचनाएँ हाथ से लिखकर राजाओं-सेठों के ग्रन्थागारों में सुरक्षित की जाने लगीं। अलग-अलग परिवारों में भी जिन्हें रुचि हुई,किसी भी साहित्यिकार की रचना को सुरक्षित रख लिया गया। वे सभी रचनाएँ, जो इस प्रकार नष्ट होने से बच गयीं, हमें पढ़ने को मिल रही हैं। हिन्दी के सभी पुराने कवियों-जैसे, चंदबरदायी,कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, मीरा, बिहारी आदि की रचनाएँ इसी प्रकार हाथ से लिखकर लोगों ने सुरक्षित रखी थीं।
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