Book Title: Anusandhan Swarup evam Pravidhi
Author(s): Ramgopal Sharma
Publisher: Rajasthan Hindi Granth Academy

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Page 79
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाण्डुलिपि-सम्पादन/69 उसका अभीष्ट लक्ष्य होती है। यहाँ एक तथ्य पूर्व निर्धारित है, उसे अनेक तथ्यों में से होकर प्राप्त करना होता है । विज्ञान में एक या अनेक तथ्यों से नये तथ्य,प्रमाण तथा परिणाम प्राप्त करने होते हैं। अत: वैज्ञानिक प्रणाली पाण्डुलिपि-सम्पादन में समग्रतः प्रयुक्त नहीं की जा सकती । यदि उसका पाण्डुलिपि-सम्पादन में कोई उपयोग है तो वह केवल यत्र-तत्र वैज्ञानिक बुद्धि के प्रयोग तक ही सीमित है। सम्पादन-योग्यता पाण्डुलिपि-सम्पादन का कार्य वास्तव में बहुत कठिन कार्य है। प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह कितना ही विद्वान क्यों न हो, इस कार्य को सरलता से नहीं कर सकता। अतः उन्हीं व्यक्तियों को यह कार्य आरंभ करना चाहिए, जिनमें निम्नांकित योग्यताएँ हों : 1. अभिरुचि- पाण्डुलिपि-सम्पादन के लिए मूलतः विषय के प्रति गहरी अभिरुचि आवश्यक है। जब तक सम्पादक सम्पादन-कार्य में उसी प्रकार की रुचि नहीं रखता, जिस प्रकार की रुचि एक खिलाड़ी की खेल के प्रति होती है, तब तक वह इस कार्य में पूर्ण तन्मयता से लगकर किसी सिद्धि तक नहीं पहुँच सकता। 2. लिपिज्ञान- पाण्डुलिपि को सही ढंग से पढ़ सकने के लिए सम्पादक को सम्बन्धित लिपि के ऐतिहासिक परिवर्तनों का पूर्ण ज्ञान अपेक्षित है। उदाहरण के लिए, नागरी लिपि में समय-समय पर जो रूप-परिवर्तन होते रहे हैं, उन्हें जाने बिना वह व्यतीत काल के लिपिचिह्नों को शुद्ध रूप में नहीं पढ़ सकता। ऐसी स्थिति में वह पाठ-ग्रहण की प्रारंभिक स्थिति में ही अपने कार्य में विफल हो जायेगा। कालजगत परिवर्तन के साथ ही लिपि के स्थानगत अन्तर को जानना भी आवश्यक है। कभी-कभी एक ही समय में एक ही लिपि के कुछ चिह्न एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न रूप में लिखे जाते हैं। एक लिपि जब कई भाषाओं में प्रयुक्त होती है, तब भी क्षेत्रीय अन्तर आ जाता है। जब उस क्षेत्र का लिपिकार दूसरे की भाषा की पाण्डुलिपि की उसी लिपि में नकल करता है तब उसकी अपनी भाषा के परिवर्तित लिपिचिह्न प्रयोग में आ जाते हैं। पाण्डुलिपि सम्पादक अगर इस तथ्य से अवगत नहीं है तो वह अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता। 3. भाषाज्ञान- भाषा का पूर्ण व्याकरणिक ज्ञान भी पाण्डुलिपि-सम्पादक के लिए अत्यावश्यक है। ध्वनियों से वाक्य-रचना तक के समस्त व्याकरणिक ज्ञान की आधार-शिला पर ही पाण्डुलिपि का शुद्ध सम्पादन निर्भर है। भाषाज्ञान के अन्तर्गत उस भाषा की विभिन्न बोलियों और उनके ऐतिहासिक परिवर्तनों की जानकारी भी अपेक्षित है. अन्यथा वह पाण्डुलिपि की मूल शब्दावली तथा वाक्य-रचना का निर्णय नहीं कर सकता। 4. इतिहास-ज्ञान- पाण्डुलिपि-सम्पादक को इतिहास का भी अच्छा ज्ञाता होना चाहिए, अन्यथा वह कृति के रचना-काल, सांस्कृतिक संदर्भो तथा घटनाओं आदि के सम्बन्ध में भ्रामक निर्णय प्रस्तुत कर सकता है। For Private And Personal Use Only

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