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72/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि पता लगाना चाहिए कि किस-किस प्रति की कौन-कौन-सी प्रतिलिपि है । जब यह निर्णय हो जाये, तब जो वंशवृक्ष बनेगा, वह मूल पाण्डुलिपि के निकट पहुँचने में सहायक होगा। उदाहरणार्थ, 'अ' ग्रन्थ की 11 प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुई। इनमें सबसे प्राचीन 3 प्रतिलिपियाँ है- क,ख और ग। उनके बाद ज, झ,ट एवं च तथा ठ लिखी गयी हैं तथा शेष घ, ङ,ड, और छ प्रतियाँ उनके भी पश्चात् लिखी गयी हैं। प्राप्त संकेतों से यह स्पष्ट हो गया है कि च और ठ प्रतियाँ ख प्रति से नकल की गयी है तथा ज,झ तथा ट प्रतियाँ, क से नकल की गयी हैं, छ प्रति च की नकल है तथा घ,ङ और ड प्रतियाँ ठ की प्रतिलिपि हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया है कि क और ख प्रतियाँ ग की प्रतिलिपि हैं। ऐसी स्थिति में सम्पादक को निम्नांकित प्रकार का वंशवृक्ष तैयार करना चाहिए :
3. पाठ-मिलान- वंशवृक्ष के आधार पर सम्पादक को पाठ का मिलान करना चाहिए। ठ प्रति में यदि कोई पाठ अस्पष्ट,खंडित या अपूर्ण है, तो उसके लिए घ, ङ और ड प्रतियों का मिलान करके निर्णय करना चाहिए। इसी प्रकार क प्रति के मूल रूप को समझने में ज, झ तथा ट की सहायता ली जा सकती है और च के लिए छ प्रति सहायक हो सकती है। एक बार नकल की गयी प्रतियों का इतना मिलान कर लेने के पश्चात् च और ठ की सहायता से ख का निर्णय कर लेना चाहिए। इस सामान्य मिलान के पश्चात् क और ख प्रतियाँ ही महत्त्वपूर्ण रह जाती हैं तथा शेष के पाठ-भेदों की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। मिलान का मूल कार्य क और ख प्रतियों में किया जाना चाहिए। यह कार्य ऐसा हो जो ग प्रति में मूल रूप का शुद्ध निर्णय करने में अधिकाधिक सहायक हो सके।
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