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शोध-प्रबन्ध-लेखन
मानविकी विषयों में शोध-प्रबन्ध-लेखन की कला भी विशेष महत्त्व रखती है। जो शोधकर्मी इस कला में निष्णात नहीं होते,उनका अधिकांश परिश्रम महत्त्वहीन हो जाता है। अतः शोध-कार्य में प्रवेश करते समय उन्हें यह भी समझ लेना चाहिए कि शोध-प्रविधि के इस क्षेत्र में भी उनकी पहुँच है या नहीं ?
शोध-प्रबन्ध-लेखन की प्रक्रिया विषय का निर्धारण करके रूपरेखा बनाते समय ही आरंभ हो जाती है। रूपरेखा ही समस्त शोध-प्रबन्ध-लेखन की दिशा भी निर्धारित करती है। जिस प्रकार आयोजना ठीक न बने तो शोध-कार्य में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं, उसी प्रकार आयोजना का रूप ठीक न हो तो शोध-प्रबन्ध-लेखन भी दिशा-भ्रष्ट हो सकता है।
शोध-प्रबन्ध-लेखन के लिए कई अनिवार्यताएँ हैं। यहाँ उन पर विचार कर लेना आवश्यक है। ये अनिवार्यताएँ दो क्षेत्रों से सम्बन्ध रखती हैं- प्रथम क्षेत्र का सम्बन्ध शोध-निर्देशक तथा शोधकर्ता से है और द्वितीय क्षेत्र का सम्बन्ध प्रबन्ध के लिखित रूप से
है।
शोध-निर्देशक का सम्बन्ध
शोध-प्रबन्ध-लेखन में शोध-निर्देशक की भी बहुत बड़ी भूमिका रहती है। शोध-कार्य के लिए तो उसका दिशा-निर्देशन महत्त्व रखता ही है,शोध-प्रबन्ध-लेखन में भी उसी का निर्देशन काम आता है। अतः शोध-निर्देशक का सुधी, अनुभवी, विषय-विशेषज्ञ, उदार, सहनशील, स्पष्टवादी, अच्छा भाषा-विद् तथा लेखन-कला में दक्ष होना आवश्यक है। आजकल शोध-निर्देशकों की बाढ़ें आ गई हैं। जो भी प्राध्यापक स्नातकोत्तर कक्षाएँ कुछ वर्षों तक पढ़ा लेता है तथा स्वयं पी-एचड़ी. उपाधि प्राप्त कर चुका होता है, वह शोध-निर्देशक भी बन जाता है। अतः प्रायः सभी स्नातकोत्तर महाविद्यालयों में हर विषय में दर्जनों शोध-निर्देशक मिल जाते हैं। यह भी देखा जाता है कि विभाग की स्नातकोत्तर
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