Book Title: Anusandhan Swarup evam Pravidhi
Author(s): Ramgopal Sharma
Publisher: Rajasthan Hindi Granth Academy

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Page 111
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिन्दी-अनुसंधान : विकास, उपलब्धियाँ और सुझाव/101 ने भी मानस के अयोध्या काण्ड का राजापुर की प्रति के आधार पर पाठ-संपादन किया था। 1914 ई. में तुलसीदास की रामायण की 'मौलिकता' शीर्षक खोजपूर्ण लेख छपाया । इस लेख से चार वर्ष पूर्व सन् 1910 ई. में मिश्रबन्धु अपना 'हिन्दी-नवरत्न' ग्रंथ प्रकाशित करा चुके थे, किन्तु उसमें शोध की अपेक्षा परिचयात्मक समीक्षा की दृष्टि ही अधिक महत्त्व प्राप्त कर सकी थी। अतः हम इस ग्रंथ को तुलसी-विषयक शोध-कार्य की एक कड़ी नहीं मान सकते। ... सन् 1916 ई. में शिवनन्दन सहाय ने "श्री गोस्वामी तुलसीदासजी” नामक ग्रंथ लिखा, जिसमें जनश्रुतियों के आधार पर तुलसी के जीवन की शोध-पद्धति से विवेचना की गयी है, किन्तु इसमें प्रामाणिक सूत्रों का आभाव है। इसी प्रकार तुलसी की कृतियों का भी उन्होंने परिचयात्मक विवरण देकर शोध के महत्त्व तक अपनी कृति को नहीं पहुंचाया है। सन् 1923 में प्रथम बार समस्त तुलसी-साहित्य को तुलसी ग्रंथावली के नाम से आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, लाला भगवानदीन तथा बाबू बजरत्नदास ने पाठ-संपादनपूर्वक प्रकाशिक कराया एवं कवि के जीवन-वृत्त और काव्य-कला पर विस्तृत शोध-पूर्ण विवेचना भी प्रस्तुत की। यद्यपि विद्वानों की दृष्टि में तुलसी-ग्रंथावली का पाठ अधिक शुद्ध नहीं है किन्तु अपने ढंग का यह प्रथम शोध-कार्य था, जिसने पाठकों के लिए तुलसी के समस्त "ग्रंथ सुलभ बना दिये एवं आगे के शोधकर्ताओं को शोध के लिए सशक्त आधार मिला। ग्रंथावली में तुलसी के जीवन से सम्बन्धित सामग्री पूर्व प्रकाशित तथ्यों की पुनरावृत्ति मात्र थी, किंतु उसके तीसरे खण्ड में विभिन्न विद्वानों के जो फुटकर निबंध संकलित किए थे, उनसे अनेक मौलिक बातें प्रकाश में आई। इन्हीं निबंधों मे आचार्य शुक्ल का वह निबंध भी सम्मिलित था,जो बाद में कुछ परिवर्तन के साथ स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रकाशित हुआ। निश्चय ही तुलसी-ग्रंथावली के प्रकाशन से तुलसी-विषयक शोध-कार्य को पाठ-संपादन, व्यक्तित्व-परिचय एवं कृति-विश्लेषण के क्षेत्रों में पर्याप्त प्रौढ़ता प्राप्त हुई। . ___तुलसी-ग्रंथावली के प्रकाशन के 2 वर्ष उपरांत बेनीमाधवदास रचित "मूल-गोसाई-चरित" का पाठ रामकिशोर शुक्ल के मानस-पाठ के साथ प्रकाशित हुआ, जिसने तुलसीदास के जीवन के सम्बन्ध में जन-श्रुतियों से भी अधिक विचित्र प्रान्तियाँ उत्पन्न कर दी। इन प्रान्तियों पर प्रमाणपूर्वक बाबू श्यामसुन्दरदास ने 1929 में “गोस्वामी तुलसीदास" शीर्षक से एक लेख लिखकर विचार किया। यह अपने ढंग का प्रथम शोध निबंध था, जिसमें ज्योतिष के आधार पर तुलसी-सम्बन्धी तिथियों पर विमर्श किया गया। यही निबंध डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थवाल के सहयोग से परिवर्तित होकर सन् 1931 ई. में “गोस्वामी तुलसीदास" नाम से प्रथाकार प्रकाशित हुआ, जिसमें “मूल गोसाई चरित” के आधार पर तुलसी के जीवन-वृत्त को बहुत विस्तार से एवं काव्य के विवेचन को अत्यंत संक्षेप में प्रस्तुत किया गया। इस ग्रंथ के पश्चात् सन् 1935 ई.में सतगुरुशरण अवस्थी ने “तुलसी के चार दल" ग्रंथ का प्रकाशन कराया, जिसमें विवेचन-सामग्री शोध की दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं रखती,किन्तु उसमें संकलित रामललानहरू, बरवैरामायण,पार्वती-मंगल तथा जानकी-मंगल को पाठ-संपादन की दृष्टि से अवश्य उल्लेखनीय माना जा सकता है । इसी प्रकार 1936 ई. For Private And Personal Use Only

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