Book Title: Anusandhan Swarup evam Pravidhi
Author(s): Ramgopal Sharma
Publisher: Rajasthan Hindi Granth Academy

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Page 114
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 104/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि समावेश हो गया था। पाश्चात्य विद्वानों के प्रयास से तुलसी के जन्म-स्थान, बाल्यावस्था, नाम, माता-पिता, पत्नी, गुरु, जीवन-यापन, साधना और रचनाओं के सम्बन्ध में खोजबीन आरंभ हुई। आरंभ में जन-श्रुतियों का सहारा लिया गया, फिर धीरे-धीरे भारतीय विद्वानों के प्रयास से तटस्थ दृष्टि से वैज्ञानिक पद्धति पर तथ्यों का शुद्धिकरण हुआ। तुलसी की रचनाओं की सूची काल-क्रम में रखकर बनाई गई तथा प्राप्त पांडुलिपियों के आधार पर प्रत्येक कृति का पाठ-संपादन हुआ। इस प्रकार तुलसी के जीवन और कृतियों का शोध कर विद्वानों ने साहित्यिक एवं शास्त्रीय विवेचन प्रस्तुत किये तथा महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले। आज जबकि तुलसीदास की सर्वोत्तम कृति रामचरितमानस की चतुर्थ शताब्दी पूर्ण हो चुकी है, विद्वान उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के सम्बन्ध में अब तक हुए अनुसंधानों के फलस्वरूप अनेक तथ्यों के विषय में एकमत होते जा रहे हैं, जिससे तुलसी के व्यक्तित्व का ही नहीं, साहित्य का भी अधिकांश स्वरूप स्पष्ट हो रहा है। शोध के नये क्षेत्र : एक सझाव शोधार्थियों को उपाधियों के लिए पंजीकरण हेतु नये-नये विषयों की खोज रहती है। विभिन्न विषयों पर तो मौलिक कार्य के नये विषय मिल ही जाते हैं, किन्तु अब यह भी आवश्यक हो गया है कि जो कार्य सम्पन्न हो चुका है, उसका भी सर्वेक्षण, मूल्यांकन, पुनर्व्याख्यान आदि किया जाए । उदाहरण के लिए, तुलसी-सम्बन्धी जो सर्वेक्षण संक्षिप्त रूप में हमने यहाँ प्रस्तुत किया है, उसे विस्तार देकर एक ऐसा शोध-प्रबन्ध लिखा जाए, जिसमें तुलसी-सम्बन्धी समस्त शोध-कार्य की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों का विस्तार से आकलन हो सके । इसी प्रकार अन्य कवियों और लेखकों या अन्य विषयों पर किये गये अनुसंधान का सर्वेक्षणात्मक मूल्यांकन किया जा सकता है, जो बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। ___शोध के क्षेत्र में कुछ ऐसी दिशाएँ भी खुल रही है जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। प्राचीन एवं मध्यकालीन हिन्दी साहित्य ने आधुनिक हिन्दी साहित्य को कई क्षेत्रों में एक परम्परा सौंपी थी। पाश्चात्य विचार-धाराओं और रचनात्मक प्रवृत्तियों के अतिशय आक्रमण से उनके प्रति विद्रोह-भाव विकसित हुए। शोधार्थी का शोध-क्षेत्र इस दृष्टि से भी विस्तृत हुआ है । उसे ऐसे विषय चुनने चाहिएं, जिन पर कार्य करने से विद्रोह भाव का सही मूल्यांकन हो सके तथा रचनाकार व समाज को सही दिशा मिल सके। भाषा के क्षेत्र में तो अभी बहुत कार्य होना शेष है। हिन्दी भाषा का शताब्दियों में जो रूप विकसित हुआ है, उसका विभिन्न दृष्टिकोणों से अध्ययन अभी बहुत कम हुआ है, साथ ही उस पर पाश्चात्य प्रभावों की गवेषणा का कार्य भी नाममात्र को ही किया गया है। लोक-साहित्य और संस्कृति के अध्ययन की भी अनेक अछूती दिशाएँ शोधकर्मियों की प्रतीक्षा कर रही हैं। आदिवासियों की भाषा का सही आकलन और उसमें उपलब्ध लोक-साहित्य का अनुशीलन भी विद्वान शोधकर्ताओं के श्रम की अपेक्षा रखता है। अतः शोध के लिए अभी अनेक ऐसे क्षेत्र शेष हैं, जिनसे शोधकर्ताओं को प्रवेश करके अपने और समाज के भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहिए । For Private And Personal Use Only

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