Book Title: Anusandhan Swarup evam Pravidhi
Author(s): Ramgopal Sharma
Publisher: Rajasthan Hindi Granth Academy

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Page 110
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 100 / अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि श्रेष्ठता के लिए धार्मिकता को ही श्रेय दिया है। तुलसी सम्बन्धी पाश्चात्य शोध कार्य की अंतिम कड़ी हैं- रूसी लेखक ए. पी. बरान्नीकौव । उन्होंने 1952 ई. में रामचरितमानस का रूसी भाषा में पद्यानुवाद प्रस्तुत किया। इस ग्रंथ की विस्तृत भूमिका में तुलसी - सम्बन्धी शोध कार्य को एक नई दिशा मिली । बरान्नीकौव ने तुलसी के जीवन और साहित्य को उनके युग की पृष्ठभूमि पर परख कर प्रतिभा, कलां और दार्शनिकता का गंभीरता से मंथन किया है। उन्होंने सिद्ध किया है कि तुलसी एक महान् दृष्टा, समाज-प्रणेता तथा सांस्कृतिक निर्माता थे । इसी प्रकार तुलसी के काव्य-सौष्ठव एवं कलात्मक गौरव को प्रस्थापित करने में भी पाश्चात्य विचारक ने पर्याप्त मौलिक एवं तटस्थ दृष्टि से काम लिया है। रानीकौ ने तुलसी के व्यक्तित्व को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में तथा कृतित्व को शास्त्रीय आधारों पर समझने की चेष्टा की है। फलतः उनका शोध कार्य तुलसी-साहित्य के साहित्यिक सौंदर्य के उद्घाटन में पर्याप्त सफल माना जा सकता है। काव्य शिल्प के मूल रूपों और शैली प्रयोगों को भी उन्होंने गंभीरता से समझाया है तथा भाषारगत वैशिष्ट्य का भी उद्घाटन किया है । अतः तुलसी-सम्बन्धी पाश्चात्य शोध कार्य में बरान्नीकौव का योगदान सभी दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । (4) भारतीय विद्वानों का शोध कार्य तुलसी-सम्बन्धी पाश्चात्य शोध कार्य में हमने सामान्य परिचयात्मक अध्ययन भी सम्मिलित किया है, क्योंकि एक हिन्दी कवि के विषय में पाश्चात्य विद्वानों की शोध - जिज्ञासा का वह स्तर भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता; किन्तु भारतीय विद्वानों के सामान्य कार्य को शोध के अन्तर्गत सम्मिलित करना उचित नहीं, क्योंकि लोकप्रिय तुलसी-साहित्य के सम्बन्ध में सामान्य तथ्यों का ज्ञान होना एक सहज बात है । अतः शिवसिंह सैंगर द्वारा शिवसिंह सरोज में प्रस्तुत तुलसी का सामान्य परिचय विशुद्ध शोध कार्य की सीमा में नहीं आता। हम इस कार्य को शोध कार्य की प्रस्तावना मात्र मान सकते हैं। वस्तुतः तुलसी- विषयक शोध कार्य का प्रथम आवश्यक अंग था- तुलसी की कृतियों का निर्णय और प्रामाणिक पाठ सम्पादन । इस दिशा में सन् 1885 ई. में भागवतदास खत्री का महत्त्वपूर्ण साधना-फल रामचरित मानस के सम्पादित पाठ के रूप में हिन्दी-जगत् के समक्ष प्रस्तुत हुआ । विवेचनात्मक शोध के समान इस कार्य का भले ही अधिक महत्त्व न हो, किन्तु मूल कृति को शुद्ध में प्रस्तुत करना भी अपने आप में एक प्रशंसनीय उपलब्धि थी । सन् 1902 ई. में इसी क्रम में रामचरित मानस का नया सम्पादित पाठ सुधाकर द्विवेदी, राधाकृष्ण दास, बाबू श्यामसुन्दरदास, बाबू कार्तिक प्रसाद एवं बाबू अमीरसिंह ने प्रस्तुत किया। इस संपादन के साथ एक संक्षिप्त भूमिका भी थी, जिसमें शोध-पूर्ण दृष्टि से तुलसी के जीवन एवं साहित्य की समीक्षा प्रस्तुत की गई है। लगभग 6 वर्ष पश्चात् लाला सीताराम For Private And Personal Use Only

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