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हिन्दी-अनुसंधान : विकास, उपलब्धियाँ और सुझाव/91 प्रथम प्रकार का शोध-कार्य स्वयं की पूर्ति में एक सिद्धि है और द्वितीय प्रकार का शोध कार्य उससे सम्बद्ध कामना की पूर्ति में सिद्धि बनता है। प्रथम प्रकार का शोध-कार्य या तो उन विद्वानों के द्वारा किया गया है, जो अपने जीवन में हिन्दी भाषा और साहित्य के अतीत और वर्तमान को समृद्ध देखने के आकांक्षी रहे हैं या उन संस्थाओं के द्वारा कराया गया है जो हिन्दी और उसके साहित्य के विकास को अपना उद्देश्य बनाकर संचालित हुई हैं। द्वितीय प्रकार के शोध-कार्य के पीछे प्रायः इस प्रकार की साधना का अभाव रहा है तथा शोधकर्ता की कामना किसी उपाधि और उसके माध्यम से व्यक्तिगत समृद्धि पर केन्द्रित रही है। हिन्दी में प्रथम प्रकार का शोध-कार्य साधना पर आधारित होने के कारण ही मात्रा में अधिक नहीं है, किन्तु गुण में महत्त्वपूर्ण है । इस प्रकार का शोध-कार्य भाषा और साहित्य दोनों के सम्बन्ध में हुआ है । आचार्य क्षितिमोहन सैन,आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बाबू श्यामसुन्दरदास, आचार्य चन्द्रबली पाण्डेय, आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, आचार्य किशोरीदास वाजपेयी,डॉ.नगेन्द्र बाबू गुलाबराय एम.ए.आदि विद्वानों ने इसी प्रकार का साधनात्मक शोध कार्य किया है। इनमें से कुछ विद्वानों ने तथ्य-खोज की है और कुछ ने ग्रंथ और ग्रंथकारों का पता लगाया है । यो हिन्दी भाषा और साहित्य को समृद्ध बनाने के लिए की गई इनकी सेवाएं सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। जिन संस्थाओं ने हिन्दी भाषा और साहित्य के सम्बन्ध में शोधकार्य कराया है, उनमें नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग आदि के अतिरिक्त विभिन्न शासकीय शोध-विभाग भी अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखते हैं। इन केन्द्रों से अधिकतर प्राचीन अनुपलब्ध सामग्री के संकलन का अभियान चला है तथा उसके परिचयात्मक विवरण प्रकाशित हुए हैं, जिससे शोध-क्षेत्र की सम्भावनाएँ बढ़ी हैं।
___कामनात्मक शोध-कार्य को हम भाषा-परक तथा साहित्य-परक दो वर्गों में विभाजित कर सकते हैं- भाषा-परक शोध-कार्य का आरंभ डॉ. बाबूराम सक्सेना के “अवधी का विकास" ग्रंथ से होता है, किन्तु यह ग्रंथ मूलत: अंग्रेजी में (1931 ई. में) लिखा गया था, अतः हमारी अर्थ-सीमा में नहीं आता। इसी प्रकार का दूसरा शोध-कार्य डॉ. धीरेन्द्र वर्मा का “ब्रजभाषा" ग्रंथ है, जो पेरिस विश्वविद्यालय में डीलिट्. की उपाधि के लिए स्वीकृत हुआ था, किन्तु यह भी हिन्दी में नहीं लिखा गया था। सन् 1954 ई. में इसका हिन्दी रूपान्तर प्रकाशित हुआ। सन् 1940 में लंदन विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि के लिए स्वीकृत “जायसी की अवधी” के विशिष्ट संदर्भ में सोलहवीं शती की हिन्दी का भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन नामक शोध-प्रबन्ध भी अंग्रेजी में लिखा जाने के कारण हिन्दी-शोध की सीमा में नहीं आता। यद्यपि पूर्वोक्त दोनों ग्रंथ तथा श्री लक्ष्मीधर का उपर्युक्त शोध-प्रबन्ध, तीनों से हिन्दी भाषा के भाषा वैज्ञानिक अध्ययन की परम्परा आरंभ हुई है, किन्तु उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम हिन्दी नहीं बन सकी । श्री नलिनी मोहन सान्याल का "बिहारी भाषाओं की उत्पत्ति तथा विकास" ग्रंथ,जो कलकता विश्वविद्यालय से पी-एचड़ी. के लिए स्वीकृत हुआ था, इस प्रकार चतुर्थ प्रयास है, किन्तु वह भी हिन्दी भाषा में प्रस्तुत
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