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हिन्दी-अनुसंधान : विकास, उपलब्धियाँ और सुझाव/93 भोजपुरी लोक साहित्य के अध्ययन को निःसंदेह आगे बढ़ाता है। इस क्षेत्र में डॉ. सत्येन्द्र का “मध्यकालीन हिन्दी साहित्य का लोकतान्त्रिक अध्ययन ग्रंथ.जो आगरा विश्वविद्यालय से 1957 ई. में डीलिट्. के लिए स्वीकृत हुआ था, लोक-साहित्य और शिष्ट साहित्य के पारस्परिक सम्बन्ध को जोड़ने वाली और दोनों के जीवन्त तत्त्वों को स्पष्ट करने वाली एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है।
शिष्ट साहित्य का अनुसंधान करते समय शोधकों का ध्यान केवल साहित्य पर ही केन्द्रित नहीं रहा, उन्होंने साहित्यकारों के जीवन और युगीन परिस्थितियों को भी समझा है तथा पारस्परिक सम्बन्धों और प्रभावों की खोज भी की है। उन्होंने स्वतंत्र रूप से भी कृतित्व के उन प्रेरक तत्त्वों को खोज निकाला है,जो सर्जन को विभिन्न रूपों में प्रभावित करते हैं। यों शोध के परिणाम नितांत आश्वस्त करने वाले रहे हैं। विभिन्न लेखकों और कवियों के जीवन के संबंध में अज्ञात सामग्री की ही खोज नहीं की गयी, उनकी अज्ञात रचनाओं को भी खोज निकाला गया है तथा उनकी प्रामाणिकता की परख की गई है। कवि के जीवन और युग की प्रवृत्तियों के संदर्भ में उसके साहित्य का मूल्यांकन प्रस्तुत करने वाले महत्त्वपूर्ण शोध-प्रबंध निम्नांकित हैं : (1) तुलसीदास : जीवनी और कृतियों का समालोचनात्मक अध्ययन
___ यह ग्रन्थ प्रयाग विश्वविद्यालय की डी.लिट. उपाधि के लिए 1940 ई.में स्वीकृत हुआ था और 1942 में प्रकाशित भी हुआ। इसमें डॉ.माताप्रसाद गुप्त ने प्रथम बार तुलसी के जीवन और कृतियों के संबंध में अनेक नये तथ्य प्रस्तुत किये तथा अनेक ग्रंथों का निराकरण हुआ।
(2) सूरदास्य : जीवन और कृतियों का अध्ययन
यह शोध प्रबंध डॉ.बजेश्वर वर्मा ने सन् 1945 में प्रयाग विश्वविद्यालय में प्रस्तुत करके डी.फिल. की उपाधि पाई थी। इस ग्रंथ का भी प्रकाशन हो चुका है। इसमें लेखक ने प्रथम बार सूरदास के जीवन और ग्रन्थों की छानबीन की तथा प्रामाणिकता पर विचार किया और कृतित्व पर भी विस्तार से प्रकाश डाला। (3) रीतिकाव्य की भूमिका और देव
इस वर्ग का तीसरा महत्त्वपूर्ण ग्रंथ डॉ. नगेंद्र रचित “रीतिकाव्य की भूमिका तथा देव और उनकी कविता" है, जिस पर उन्हें आगरा विश्वविद्यालय से सन् 1946 ई. में डी. लिट. की उपाधि मिली थी। यह ग्रंथ प्रारंभ में एक जिल्द में प्रकाशित हुआ था, बाद में उसका द्वितीय संस्करण दो भागों में छपा । रीतिकाल की भूमिका को स्पष्ट करते हुए डॉक्टर नगेन्द्र ने पहली बार इस ग्रंथ में महाकवि देव के जीवन और कृतियों की ही खोज नहीं की, अपितु उनके काव्य-वैभव को भी प्रकाशित किया। डॉ. नगेंद्र का यह शोध-कार्य अनेक दृष्टियों से आगे के शोध-कर्ताओं के लिए दिशा-निर्देशक सिद्ध हुआ।
इस वर्ग के अन्य महत्त्वपूर्ण शोध-ग्रन्थों में तुलसीदास और उनका युग (डॉ. राजपति दीक्षित), अकबरी दरबार के हिन्दी कवि “(डॉ. सरयूप्रसाद अग्रवाल), आचार्य
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