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88/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि
वस्तुतः शोधकर्ता को स्वयं आरंभ में ही समझ लेना चाहिए कि वह शोध का अधिकारी भी है या नहीं। जिसने पाठ्य-पुस्तकों एवं कुंजियों आदि के सहारे स्नातकोत्तर उपाधि तो प्रथम श्रेणी में प्राप्त कर ली है, किन्तु एक पत्र भी लिखने में जिसकी कलम हिचकती है,कभी किसी पत्र-पत्रिका के लिए मौलिक लेख लिखने की इच्छा नहीं हुई, ऐसा छात्र सही शोधार्थी नहीं बन सकता। यदि उसने शोध-यात्रा आरंभ भी कर दी तो वह शोध-प्रबन्ध लिख नहीं सकता। कभी-कभी ऐसे तथाकथित शोधार्थी ही इधर-उधर से नकल करके उपधि तो ले लेते हैं, किन्तु उनके शोध-प्रबन्ध को अन्धकार से बाहर अभी कोई नहीं देख पाता। दुःख तो यह है कि ऐसे शोध-कर्म के पश्चात् कुछ वर्षों का अध्ययन-अनुभव लेकर वे स्वयं भी शोध-निर्देशक बन जाते हैं और जब शोध-प्रबन्ध लिखाने की नौबत आती है, तब शोधार्थी को पहले से ही हरी झंडी दिखा देते हैं। प्रबन्ध-लेखन का दूसरा पक्ष
___ समर्थ शोध-निर्देशक तथा सक्षम शोधकर्ता की प्रथम शर्त पूर्ण हो जाने के पश्चात् प्रबन्ध-लेखन की दूसरी शर्त प्रारंभ होती है। जिस रूपरेखा के अनुसार शोध-कार्य आरंभ किया गया है, उसे पर्याप्त न मानकर शोधकार्य की उपलब्धियों को ध्यान में रखते हुए शोध-प्रबन्ध को तीन भागों में बाँट लेना चाहिए। प्रथम भाग में शोधार्थी को विषय की भूमिका लिखनी चाहिए। यह भाग ही मूल विषय को सही दिशा देता है। अतः इस भाग के अध्यायों या अध्याय का आगे की विवेचन सामग्री से व्यवस्थित सम्बन्ध होना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि भूमिका अनर्गल न हो,न अधिक विस्तार धारण करे। इस बात का भी बराबर ध्यान रहना चाहिए कि विषय के विवेचन का जो क्षेत्र है, उसके पूर्व-परिचय की समस्त सामग्री संक्षिप्त तथा सम्बद्ध रूप में भूमिका में आ जाये । मूल विषय के स्रोत खोजने में इतनी अधिक असम्बद्ध सामग्री न प्रस्तुत कर दी जाये कि जिससे विवेचन के पश्चात् निष्कर्षों का यह पता ही न चले कि वे भूमिका पर आधारित हैं या मूल विषय पर। वस्तुतः शोधार्थी को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि शोध-विषय का सुबोध आधार तैयार हो जाए तथा उस विषय के पूर्ववर्ती कार्यों का संक्षिप्त सिंहावलोकन भी भूमिका भाग में आ जाए।
भूमिका भाग लिख लेने के पश्चात् शोधकर्ता को विषय-विवेचन भाग का क्रम-पूर्वक अध्यायों में विभाजन करना चाहिए तथा संग्रहीत सामग्री के आधार पर उपयुक्त उद्धरण देते हुए विषय का विश्लेषण एवं विवेचन करना चाहिए। सम्बन्धित उपलब्ध ज्ञान का यथा-स्थान पुनराख्यान भी करते चलना चाहिए। जो भी तर्क दिए जाएँ तथा उनके लिए जो भी प्रमाण जुटाए जाएं, उनका पाद-टिप्पणियों में उल्लेख करना चाहिए। पाद-टिप्पणियों में पुस्तक, लेखक, पृष्ठ, संस्करण तथा प्रकाशक का सही-सही उल्लेख होना चाहिए। ये पाद-टिप्पणियाँ प्रत्येक पृष्ठ पर भी दी जा सकती हैं और प्रत्येक अध्याय के अन्त में भी। यह भी हो सकता है कि समस्त शोध-प्रबन्ध लिख जाने के पश्चात् पार पणियाँ ए:
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