Book Title: Anusandhan Swarup evam Pravidhi
Author(s): Ramgopal Sharma
Publisher: Rajasthan Hindi Granth Academy

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Page 95
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुसंधान और मानव-मूल्य/85 वाली कलाएँ कितनी ही श्रेष्ठ क्यों न हों, मूल्य-हीन ही सिद्ध होती हैं। मनोरंजन करने में बाजी मार ले जाने वाला साहित्य यदि मानव-चरित्र को पतन की ओर ले जाने वाले उदाहरण प्रस्तुत करता है, तो उसकी मूल्य-हीनता उसे साहित्य की श्रेणी से निकाल देने के लिए पर्याप्त होती है। ऐसे इतिहास, कला या साहित्य पर कुछ समय के लिए कोई वर्ग या समाज भले ही गर्व कर ले, किन्तु परिणाम विनाशकारी ही सिद्ध होता है। अतः हर विनाशकारी स्थिति से समाज को बचाने के लिए शोध की आवश्यकता होती है। मानव-मूल्यों को समझने वाला शोधकर्ता कला, साहित्य या इतिहास के उन समस्त मूल्यों के प्रति समाज को सावधान कर देता है, जिनसे आगे की पीढ़ी पथभ्रष्ट हो सकती थी। इस प्रकार शोधकर्ता अपने श्रम और ज्ञान का सुफल केवल अपने समय के समाज को ही नहीं देता, बल्कि भावी समाज का भी मार्ग-दर्शन करता है। जो कुछ घटित हो चुका है, उसे रोका तो नहीं जा सकता, किन्तु आगे वैसा घटित न हो, यह प्रयत्न तो किया ही जा सकता है । शोध के द्वारा यही प्रयत्न चरितार्थ होता है। अतः जो देश अपने भावी इतिहास को सुधारना चाहता है, वह निरन्तर अपने साहित्य, कलाओं और इतिहास की घटनाओं का अनुसंधान कराता रहता है। शिक्षा को सही दिशा देने में ये अनुसंधान काम आते हैं। भारतवर्ष एक सहस्र वर्षों से अधिक समय तक परतंत्र रहा। इतिहास लिखने वालों ने इस लम्बी अवधि की घटनाओं और उपलब्धियों को बड़े-बड़े पोथों में प्रस्तुत कर दिया, किन्तु जब तक उन पोथों का इस दृष्टि से अनुसंधान न हो कि वे कौनसे कारण थे जो दीर्घकालीन परतंत्रता में सहायक हुए, तब तक उनको समाज की उन्नति में सहायक नहीं बनाया जा सकता । विदेशी आक्रान्ता यहाँ आये और लूट-मार करके चले गये,या शासक बन गये, इस तथ्य मात्र को इतिहास की सामग्री नहीं माना जा सकता । उन आक्रान्ताओं के काले-कारनामों की भारतीय संदों में मूल्य-परक सही व्याख्या आवश्यक होती है, ऐसी व्याख्या जो भविष्य को एक प्रकाश सौंप सके। यह कार्य शोध के द्वारा ही संभव है और सही शोधकर्ता को इस ओर ध्यान देना चाहिए। साहित्य में कलात्मक समृद्धि की प्रशंसा एक बात है और उसकी मूल्य-परक छान-बीन दूसरी बात । परतंत्रता के दिनों में पतनशील समाज के सामने शासकों द्वारा रखे गये कलात्मक उच्च प्रतिमान मूल्यों के प्रति नकारात्मक स्थिति के ही प्रतीक कहे जाएँगे। इसी आधार पर एक ओर हिन्दी का भक्तिकालीन काव्य यदि मूल्यों की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध साहित्य माना जायेगा, तो रीतिकालीन काव्य उसी की तुलना में विपन्न स्थिति का साहित्य कहा जायेगा, भले ही उसमें आलोचकों को कलात्मक समृद्धि के दर्शन होते हों। चित्र, मूर्ति, नृत्य आदि के साथ भी शोध की यही दृष्टि जुड़ी हुई है। अतः यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि शोध का मुख्य कार्य उच्च मानव-" मूल्यों की रक्षा करना, उन्हें समय की काई से निकालकर समाज के सामने रखना तथा देश के भविष्य को उज्ज्वल बनाने में उनका योगदान कराना है। जिन विद्वानों का शोध-कार्य इस कर्त्तव्य से च्युत होता है, उन्हें समाज का हितैषी नहीं कहा जा सकता। For Private And Personal Use Only

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