Book Title: Anusandhan Swarup evam Pravidhi
Author(s): Ramgopal Sharma
Publisher: Rajasthan Hindi Granth Academy

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Page 86
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 76/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि ___ इन शीर्षकों से स्पष्ट है कि शोधकर्ताओं ने ग्रंथों, लेखकों, काव्य-प्रवृत्तियों, कथा-साहित्य, काव्यशास्त्र आदि विभिन्न विषयों का तुलनात्मक अनुशीलन किया है । अतः तुलनात्मक अनुसंधान की प्रवृत्ति भी भली प्रकार जानी-पहचानी है, किन्तु अनुसंधान की प्रविधि का कितना अनुसरण इन शोध-प्रबन्धों में किया गया है, यह विचारणीय है। प्रायः देखा जाता है कि तुलनात्मक अनुसंधान करने वाले शोधार्थी जब दो कवियों या लेखकों, दो प्रवृत्तियों, दो ग्रन्थों, दो भाषाओं या दो अलग साहित्यों का तुलनात्मक अनुसंधान करते हैं, तब वे कुछ मान निर्धारित कर लेते हैं और उन्हीं से दोनों पक्षों की तुलना कर देते हैं। सामान्यत: यह देखा जाता है कि साम्य-वैषम्य की परीक्षा करके शोधार्थी अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। कुछ शोध-प्रबन्धों में एक अन्य हास्यास्पद पद्धति देखने को मिली है और वह है-दोनों पक्षों का अलग-अलग अध्ययन तथा अन्त में एक अध्याय में निष्कर्ष के रूप में दोनों पक्षों की तुलना । इसलिए यह कहा जा सकता है कि शताधिक तुलनात्मक शोध-प्रबन्ध केवल हिन्दी भाषा और साहित्य के सम्बन्ध में लिखे जाने पर भी उनमें अनुसंधान के गुण बहुत कम है तथा शोधपरक सत्य का उद्घाटन नहीं हो सका है। वस्तुतः तुलनात्मक अनुसंधान में विषय-चयन से तथ्य-सत्यापन तक बहुत सावधानी की आवश्यकताहोती है। सर्वप्रथम विषय का चयन करते समय यह देखना चाहिए कि जिन दो पक्षों की तुलना की जा रही है, उनके कथ्य की भूमि समान हो, ताकि कथ्य को प्रस्तुत करने का साम्य-वैषम्य स्पष्ट हो सके। विषय-चयन के पश्चात् जब अनुसंधान कार्य प्रारंभ किया जाये, तब यह प्रतिज्ञा की जानी चाहिए कि दोनों पक्षों के प्रति अध्ययन की दृष्टि निष्पक्ष रहेगी। ऐसा न होने से तुलना में निर्विवाद निष्कर्षों तक पहुँचना कठिन हो जाता है। उदाहरणार्थ, एक शोधार्थी “रामचरितमानस और रामचंद्रिका” शीर्षक से तुलनात्मक अध्ययन करता है और दूसरा “रामचंद्रिका और रामचरितमानस” शीषक से । दोनों के शीर्षकों में साधारणतः अन्तर दिखाई नहीं देता, किन्तु अध्ययन करते समय प्रथम शीर्षक के शोध-प्रबन्ध में रामचरितमानस को प्रधानता मिल जाती है और द्वितीय शीर्षक के शोध-प्रबन्ध में रामचन्द्रिका प्रधान हो उठती है। शोधकर्ता को चाहिए कि वह प्रतिज्ञा-बद्ध होकर इस दोष से बचे तथा दोनों के साथ समान न्याय करे। यदि सूत्र रूप में कहें तो यह कहा जा सकता है कि तुलनात्मक अनुसंधान में वस्तुनिष्ठ होना बहुत आवश्यक है और यह कार्य निरन्तर सावधानी की अपेक्षा रखता है। __ प्रश्न यह उठता है कि क्या वस्तुनिष्ठता इतनी सहज है कि हर शोधार्थी उसका अधिकारी मान लिया जाए? सबसे प्रथम प्रश्न तो यही उठता है कि जिन दो पक्षों की तुलना की जा रही है, उनका समान ज्ञान क्या शोधार्थी को है ? उदाहरणार्थ, कोई शोधार्थी हिन्दी और मराठी की एक-एक रचना तुलना के लिए चुनता है, उसने यह चयन विषयवस्तु आदि को देख-परख कर किया है, वह वस्तुनिष्ठ भी रहना चाहता है। किन्तु उसे मराठी का ज्ञान ही नहीं है या For Private And Personal Use Only

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