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78/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि
तुलनात्मक अनुसंधान पाण्डुलिपियों के काल-निर्धारण तथा रचनाकार के निश्चय में भी सहायक होता है । कल्पना कीजिए कि आपको एक प्राचीन पाण्डुलिपि मिली। इस पाण्डुलिपि पर लेखक का नाम नहीं है। अब कैसे पता चले कि वह किसकी रचना है ? ऐसी दशा में पहले रचना के काल का पता तुलनात्मक अनुसंधान से लगाना होगा। इस कार्य के लिए स्याही, सामग्री, लिपि, कागज, भाषा आदि के आधार पर पहले काल-निर्णय दूसरी पाण्डुलिपियों से तुलना करके करना होगा। तत्पश्चात् इन्हीं बातों के आधार पर उस काल की कुछ कृतियों से तुलना करके यह पता लगाना होगा कि विषय-प्रतिपादन शैली, भाषा, लिपि आदि का किस कृति से साम्य है और उसका लेखक कौन है ? तुलनात्मक पद्धति का इसी प्रकार विषय-सामग्री के अन्य पक्षों पर भी प्रयोग करना होगा और तब शोधार्थी किसी सत्य के निकट पहुंच सकेगा। तुलनात्मक अनुसंधान के अलावा इस प्रकार के सत्यों तक पहुंचने का अन्य कोई मार्ग नहीं है।
वस्तुतः तुलनात्मक अनुसंधान के इतिहास और संस्कृति के ऐसे रहस्य खुलते चले जाते हैं, जिनसे मानव-जीवन का एक नया क्षितिज ही प्रकाशित हो उठता है। यह तुलनात्मक अनुशीलन का ही परिणाम है कि एक देश की कोई कथा दूसरे देश में जाकर कैसा विचित्र रूप धारण कर लेती है और फिर भी वह उसके मूल देश की पहचान करने वाले शोधार्थी की पहुंच से बाहर नहीं रह पाती। वाल्मीकि की रामायण के हनुमान ने थाईलैण्ड आदि देशों में जाकर जो रूप धारण किये, वे ऐसे थे कि बड़े-बड़े बुद्धिमान भी उन्हें नहीं पहचान सकते थे; किन्तु तुलनात्मक शोधकर्ता ने उनका मूल रूप सबके सामने उजागर कर ही दिया। अत: संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि तुलनात्मक अनुसंधान तलवार की धार पर चलने के समान कठिन अवश्य है किन्तु सुधी-साधक शोधार्थी इस क्षेत्र में बड़ी-से-बड़ी सफलता पा सकता है।
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