Book Title: Anusandhan Swarup evam Pravidhi
Author(s): Ramgopal Sharma
Publisher: Rajasthan Hindi Granth Academy

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Page 77
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पाण्डुलिपि- सम्पादन/67 यदि रचनाकार स्वयं अपनी रचना लिपिबद्ध करता है तो वह यथाशक्ति उसे शुद्ध रखने की चेष्टा करता है। उसकी लिपि में यदि कोई त्रुटि रह जाती है, तो उसके दो कारण हो सकते हैं : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1. रचनाकार का अज्ञान, 2. रचनाकार की असावधानी । यदि रचनाकार किसी प्रकार की असमर्थता के कारण अपनी रचना को स्वयं लिपिबद्ध नहीं कर पाता तो किसी लिपिकार का सहारा लेता है। जब वह लिपिकार उसकी कृति को प्रथम बार लिपिबद्ध करता है, तब उसकी निम्नांकित सीमाएँ रचना की शुद्ध पाण्डुलिपि निर्मित होने में बाधक हो जाती है : ण-दोष- क्योंकि वह जैसा बोलता है, वैसा ही लिपिकर्ता 1. रचनाकार का उच्चारण लिख सकता है । 2. लिपिकार का श्रवण-दोष- कभी-कभी लिपिकार अपनी श्रवण-शक्ति के दोष के कारण रचनाकार के कथन को यथावत् प्रहण नहीं कर पाता और अन्यथा अंकित कर लेता है । 3. लिपिकार का भाषा ज्ञान - कभी-कभी ऐसा होता है कि लिपिकर्त्ता रचनाकार की तुलना में अधिक या कम भाषा ज्ञान रखता है। जब लिपिकर्ता का ज्ञान अधिक होता है, तब वह रचनाकार के कथन को अपनी बुद्धि से यत्र-तत्र संशोधित करता हुआ प्रस्तुत कता है और जब भाषाज्ञान कम होता है, तब ठीक सुन लेने पर भी वह अशुद्ध रूप में अंकित कर देता है । 4. क्षेत्रीय प्रभाव - लिपिकर्त्ता और रचनाकार जब भिन्न क्षेत्रों के निवासी होते हैं, तब उनकी क्षेत्रीय बोलियों का अन्तर भी लिपिकर्ता के कार्य पर प्रभावी हो जाता है और सहजता से रचना के अभीष्ट रूप में अन्तर आ जाता है । इन सीमाओं के कारण पाण्डुलिपि में अनेक अशुद्धियाँ समय के साथ बढ़ती और बदलती चली जाती है। प्रत्येक हस्तलिखित प्रति मुद्रण के अभाव में जब दूर-दूर तक नकल के माध्यम से पहुँचती है, तब उसके मूलरूप का अनेक बार रूपान्तरण हो जाता है। प्राचीन काल से अब तक यह परिवर्तन-प्रक्रिया चलती आयी है। जो पाण्डुलिपि प्रथम बार तैयार की गयी थी, वह यदि नष्ट हो गयी, तब शुद्धता का प्रमाण जुटाना भी असम्भव हो जाता है। यदि वह नष्ट न भी हो, तो भी यह तय करना एक समस्या हो जाती है कि मूल पाण्डुलिपि कौन-सी है और उसका निर्णय किस प्रकार किया जाये ? इस दुष्कर कार्य को ही पाण्डुलिपि- सम्पादन कहते हैं। इस कार्य के अन्तर्गत एक ही पुस्तक की विभिन्न पाण्डुलिपियों को एकत्र करके उस प्रति के मूल रूप का निर्णय करना होता है। एक पुस्तक की जितनी हस्तलिखित प्रतियाँ होती है, उनसे अशुद्ध अंशों को ही नहीं निकालना पड़ता, अपितु रचनाकार के अभीष्ट अंश का निर्धारण भी प्रमाणपूर्वक करना पड़ता है। इस कार्य For Private And Personal Use Only

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