Book Title: Anusandhan Swarup evam Pravidhi
Author(s): Ramgopal Sharma
Publisher: Rajasthan Hindi Granth Academy

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Page 76
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 66/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि आज भी भारत तथा बाहर के कुछ संग्रहालयों में ताड़पत्र पर लिखित ग्रन्थ सुरक्षित हैं। धातुओं के पत्रों पर अनेक प्राचीन दानपत्र आज भी उपलब्ध होते हैं । प्रशंसापत्र भी धातुपत्रों पर लिखे हुए मिले हैं। इन धातुपत्रों में अधिकांशतः ताम्र धातु का उपयोग किया गया है। पाषाणों पर अशोक के समय से ही अनेक लेखों का मिलना प्रारम्भ हो जाता है । साहित्यिक ग्रन्थ भी पाषाणों पर अंकित मिलते हैं। उदाहरण के लिए. अजमेर के निकट पत्थरों पर विग्रहराज चतुर्थ तथा उसके दरबारी मन्त्री सोमदेव के नाटकों के अंश मिले हैं, बिझोली में पत्थरों पर जैनियों का “स्थल पुराण” ग्रन्थ लिखा हुआ मिला है तथा राजसमंद (उदयपुर) के जलवन्ध पर लगी शिलाओं पर राजप्रशस्ति महाकाव्य पाया गया है । कागज पर लिखित ग्रन्थ तथा अन्य सामग्री 12वीं शताब्दी के लगभग मिलना प्रारम्भ होती है। उस समय से अब तक कागज पर ग्रन्थ लिखने की प्रथा भी निरन्तर चल रही है। __अतः पाण्डुलिपि की अर्थसीमा भोजपत्र, ताड़पत्र, काष्ठपटल, कपसिपटल, धातुखण्ड, पाषाण से चलती हुई कागज तक आयी है। यद्यपि आजकल अधिकांश पाण्डुलिपियाँ कागज पर लिखी हुई मिलती हैं, तथापि अन्य साधनों पर अंकित पाण्डुलिपियों का प्राप्त होना भी असम्भव नहीं है । पाण्डुलिपि-सम्पादक को पूर्वोक्त किसी भी पटल पर अंकित पाण्डुलिपि मिले, सम्पादन का कार्य करना होता है। प्रतिलिपि भी पाण्डुलिपि __ अर्थसीमा का पूर्वोक्त विस्तार साधन के प्रसंग में हुआ है, किन्तु एक दूसरा प्रसंग भी है, जिसमें पाण्डुलिपि की अर्थसीमा का अत्यधिक विस्तार हुआ है। प्रारम्भ में लेख आदि का पहला रूप ही पाण्डुलिपि था, किन्तु धीरे-धीरे एक पाण्डुलिपि की कई प्रतिलिपियाँ होने लगी, क्योंकि उस समय छपाई की व्यवस्था नहीं थी। राजा और जागीरदार अपने मनोरंजन और ज्ञानवर्द्धन के लिए प्रसिद्ध कवियों और लेखकों के मूल ग्रन्थों की हस्तलिपि प्रतियाँ तैयार कराने लगे। इस प्रकार एक-एक ग्रन्थ की अनेकानेक प्रतिलिपियाँ प्रतिलिपियों के आधार पर तैयार होती रहीं। आज ऐसी जितनी हस्तलिखित प्रतियाँ संग्रहालयों या व्यक्तियों के पास उपलब्ध हैं, उन सबको “पाण्डुलिपि” कहते हैं। अतः पाण्डुलिपि की अर्थसीमा मूल से नकल तक जा पहुँची है और हर हस्तलिखित पुस्तक पाण्डुलिपि कही जाने लगी है। पाण्डुलिपि-सम्पादन किसी कवि या लेखक (साहित्यकार,इतिहासकार, दार्शनिक आदि) की मूल रचना जब प्रथम बार लिपिबद्ध की जाती है, तब उसके दो रूप हो सकते हैं : 1. रचनाकार का अभीष्ट रूप, 2. लिपिकर्ता द्वारा प्रस्तुत उस अभीष्ट रूप का प्रथम रूप। For Private And Personal Use Only

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