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साहित्यिक अनुसंधान एवं समालोचना/59 मुक्त रहता है। वह तो रचना के ऊपर खड़ा-खड़ा जो कुछ देख पाता है, उसी को अपना निर्णय मान लेता है, अन्य लोग माने या न मानें, किन्तु शोधक ऐसा निर्णय देना चाहता है, जो सबको मान्य हो।
इसे हम यों कह सकते हैं कि समालोचना में समालोचक के ज्ञान, रुचियों और पूर्वागत मान्यताओं का भी कृति पर प्रभाव पड़ता है । समालोचक को इसी कारण डॉ. नगेन्द्र ने अभिस्रष्टा कहा है । तुलसीदास ने जो कुछ लिखा,उसकी समालोचना करते समय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी ओर से बहुत कुछ मिला दिया तथा प्रगतिवादी समीक्षकों ने जब तुलसी के कृतित्व की समीक्षा की, तो उन्होंने उसमें से बहुत कुछ घटा दिया। समालोचना की पद्धतियों की यह वस्तु-परक-हीनता ज्ञान के विस्तार के स्थान पर कभी-कभी हास में भी सहायक होती है। आजकल हिन्दी माहित्य में समालोचना की पक्षपातपूर्ण जो पद्धति चल रही है, उससे आज का अधिकांश महत्वपूर्ण साहित्य क्षय-ग्रस्त होता जा रहा है और अधिकांश महत्त्व-हीन कृतित्व राजनीति की नारेबाजी के आकाश में अपना स्वर-ध्वज लहरा रहा है। निश्चय ही समालोचना की पद्धतियों में जब वस्तु-परकता को स्थान नहीं मिलता, तब ज्ञान-सीमा के विस्तार के स्थान पर संकोच होने लगता है। शोध की पद्धति में वस्तु-परकता मुख्य है । जो शोध-कार्य वस्तु-परक नहीं, वह शोध-संज्ञा का अधिकरी ही नहीं है। हर शोधकर्ता को मूलतः समस्त पूर्वाग्रह-हीन होना पड़ता है। वास्तव में शोध-कार्य एक न्यायाधीश की निर्णय-पद्धति का अनुसरण करता है । कोई भी न्यायाधीश स्वानुभूति-परक होकर निर्दोष निर्णय नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए, किसी न्यायाधीश के सामने 'अ' की 'ब' द्वारा हत्या कर दी जाती है। शासन 'ब' को अपराधी बनाकर दण्ड-निर्णय के लिए न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत करता है। न्यायाधीश मौन होकर अभियोगी और अभियुक्त की पक्ष समर्थन हेतु कही गई बातों को सावधानी से अंकित करता है । इस प्रकार संकलित, विश्लेषित तथा विवेचित समस्त साक्ष्यों के आधार पर ही वह यह निर्णय निष्कर्ष रूप में प्रस्तुत करता है कि 'ब' अपराधी है,अत: उसे मृत्यु-दण्ड या आजीवन कारावास दिया जाता है। वह चाहे तो अपने सामने हत्या होने के आत्मसाक्ष्य के आधार ही 'ब' को उपरोक्त दण्ड दे सकता है चूंकि 'ब' ने हत्या की है, यह तथ्य है, अत: दोनों ही दशाओं में न्यायाधीश का निर्णय सत्य है किन्तु निर्णय-पद्धति का अन्तर है । द्वितीय पद्धति का निर्णय निर्दोष होने पर भी पद्धति सदोश है। यह पद्धति निष्कर्ष या निर्णय के लिए सामग्री-परीक्षण की आवश्यकता पर बल नहीं देती। न्यायाधीश अपनी ओर से द्वितीय पद्धति के निर्णय के समर्थन में अनेक साक्ष्य दे सकता है, किन्तु वे साक्ष्य उसके अपने हैं। अतः उनसे प्रभावित न हो, यह संभव नहीं। एक घटना में न्यायाधीश अपने अनुभव के आधार पर सत्य का उद्घाटन कर भी दे, किन्तु उसी प्रकार की अन्य घटनाओं में वह उस द्वितीय पद्धति के निर्णय देने में कहां पक्षपात कर रहा है, कहाँ नहीं, कहाँ उसने अपराधी को वास्तव में देखा है,कहाँ नहीं- इसका निर्णय कौन करेगा ? इन संदेहों का शोधन हुए बिना उसका निर्णय शुद्ध कैसे माना जायेगा ? यही समस्या समालोचक के साथ भी है। जिस प्रकार आत्मसाक्ष्य के आधार पर मृत्यु-दण्ड देने वाला न्यायाधीश किसी निरपराधी को अपनी इच्छा होने पर दण्ड दे सकता है और अपराधी को छोड़ भी सकता है, किन्तु पर-साक्ष्य के आधार
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