________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
62/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि
इस प्रकार हाथ से लिखी हुई रचनाएँ पाण्डुलिपियाँ कहलाती हैं। इन रचनाओं के लिपिकर्ता अलग-अलग होते हैं। एक ग्रन्थागार में किसी साहित्यिक रचना की जो पाण्डुलिपि मिलती है,दूसरे ग्रन्थागार में उसी लिपिकर्ता की पाण्डुलिपि मिले,यह आवश्यक नहीं है। उदाहरण के लिए, मीराबाई के पदों की पाण्डुलिपियाँ अलग-अलग ग्रन्थागारों या संग्रहालयों में अलग-अलग लिपिकर्ता द्वारा लिखी मिलती हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि उनके लिखित रूप में अन्तर है। लिखित रूप को शोध के क्षेत्र में “पाठ" कहते हैं। इसलिए लिखे हुए रूपों का यह अन्तर ही पाठान्तर या पाठ-भेद कहलाता है। यह पाठ-भेद जब तक रहेगा, तब तक उस रचना का सही या शुद्ध रूप सामने नहीं आ सकता। इसलिए साहित्यिक शोध करने वाले को पहले पाण्डुलिपि का यह पाठ-भेद मिटाना पड़ता है। जब भेद मिटाकर शोधार्थी एक शुद्ध रूप निर्धारित करता है,तब इस कार्य को पाठ का आलोचन अर्थात् पाठालोचन कहते हैं। अतः साहित्यिक शोध का कार्य हो तब तक आरंभ नहीं हो सकता, जब तक शोधार्थी पाठालोचन करके शुद्ध पाठ निर्धारित न कर ले। यही कारण है कि पाण्डुलिपियों के रूप में मिलने वाले साहित्य के अनुसंधान के लिए पाठालोचन की प्रक्रिया अत्यन्त आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है। पाठालोचन के बिना हम अर्थ का अनर्थ कर सकते हैं।
यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि “पाठ” का अर्थ केवल पढ़ना ही नहीं है, बल्कि जो लिखा हुआ है, वह लिखित रूप भी “पाठ" है । इसे अंग्रेजी में टैक्स्ट (Text) कहते हैं। पाठालोचन टैक्स्चु अल क्रिटिसिज्म कहते हैं। इस “पाठ" शब्द में “आलोचना” शब्द जोड़कर “पाठालोचन” नाम से एक शैली या विधा बनी है। साहित्य के विद्यार्थी को इस शैली को एक विशेष कला मानकर समझना चाहिए। इस कला में जो परीक्षार्थी प्रवीण (कुशल) हो जाता है, वही साहित्य को सही ढंग से समझ और समझा सकता है।
यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पाठालोचन केवल हाथ से लिखी पुरानी रचनाओं का ही नहीं किया जाता, छपी हुई साहित्यिक पुस्तकों की शोध के लिए भी पाठालोचन की आवश्यकता होती है। इसका कारण यह है कि लेखक (साहित्यकार) अपने हाथ से अपनी रचना लिखकर प्रेस में भेज देता है। वहाँ यह छपती है, तो प्रूफ देखने वाले की असावधानी से उसके शब्दों के रूप में परिवर्तन होने की संभावना रहती है । जैसे, एक प्रूफ-रीडर ने “शर्मा” को “सर्मा” दूसरे ने “सरमा” कर दिया और वैसा ही छप गया। फल यह हुआ कि कविता का अर्थ ही बदल गया क्योंकि शर्मा ब्राह्मण को कहते हैं और “सर्मा" या “सरमा” कुत्ते को कहते हैं। आधुनिक लेखकों की रचनाओं के साथ यह अन्याय कभी-कभी बहुत भयंकर हो जाता है। एक रचना का वाक्य था-"जिसे जाना हो, सो जाए।" प्रेस में “सो” को “जाए" से मिला दिया। हो गया-“जिसे जाना हो सोजाए।" फलतः जाने वाला सो गया। अगर हम शुद्ध पाठ को निर्धारित किये बिना शोधकार्य करेंगे, तो इसी प्रकार सही ज्ञान भी सोजाएगा। स्पष्ट है कि साहित्यिक शोधक और पाठालोचन का चोली-दामन का साथ है । इसके बिना हम सत्य तक नहीं पहुँच सकते।
For Private And Personal Use Only