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साहित्यिक अनुसंधान एवं समालोचना/57 है, किन्तु शोधार्थी आग्रह नहीं रख सकता। जब तक वह स्वयं अपनी पद्धति और निर्णयों को एक तटस्थ व्यक्ति बनकर चुनौती नहीं दे सकता और उत्तर में उन पद्धतियों तथा निर्णयों को चुनौती की कसौटी पर खरा नहीं पा सकता, तब तक उसका कार्य शोध के क्षेत्र में नहीं आता। उसे सबसे पहले स्वयं इस बात के लिए आश्वस्त होना पड़ता है कि उसने जो पद्धति अपनाई है, वह पूर्णतः निष्पक्ष, तटस्थ तथा वस्तु-निष्ठ है एवं जो निर्णय प्रस्तुत किये हैं, वे पूर्णतः प्रामाणिक तथा विश्वसनीय हैं । उसे अपनी विचार-प्रक्रिया के प्रत्येक चरण की परीक्षा में खरा उतरना पड़ता है तथा सर्वत्र तार्किकता की रक्षा करनी पड़ती है। उसे तर्क के प्रत्येक चरण पर मिलने वाले प्रमाणों को स्वीकारते हुए अपने निष्कर्षों को परिमार्जित करना पड़ता है। समालोचक इस सबके लिए न तो प्रतिबद्ध होता है,न बाध्य ही । उसे कृति और कृतिकार को अपनी दृष्टि से देखना होता है,जबकि शोधार्थी को अपनी दृष्टि की सीमाएँ अस्वीकार करके शोध्य विषय से प्राप्त ऐसी दृष्टियाँ अपनानी पड़ती हैं,जो उसे तो प्रामाणिक प्रतीत हों ही, साथ ही जो प्रत्येक व्यक्ति की अपनी दृष्टि बनने की सामर्थ्य भी रखती हों। यही कारण है कि समालोचक जहाँ अध्येय वस्तु को किसी भी स्तर पर किसी भी दृष्टि से देखने के लिए स्वतन्त्र होता है, वहाँ शोधार्थी पद-पद पर प्रयुक्त दृष्टि तथा द्रष्टव्य वस्तु के प्रामाणिक सम्बन्ध के प्रति पूर्ण सावधान और सतर्क रहता है। अपने अध्ययन की प्रक्रिया से गुजरते समय जब उसे कोई ऐसा उत्तर मिलता है,जो उसे व्यक्तिगत रूप में पर्याप्त प्रसन्न तो करता है, किन्तु वह उसकी अध्ययन यात्रा का लक्ष्य नहीं है, वह उस उत्तर को अपनी उपलब्धि न मानकर कार्य में अग्रसर होने के लिए विवश होता है, जबकि समालोचक उस प्रसन्नकारक उत्तर के ही आस-पास घूमकर अपने अध्ययन की इतिश्री मान लेता है तथा आत्मोल्लासक कोई तथ्य न मिलने पर सम्पूर्ण कृति के सम्बन्ध में ऐसे निर्णय दे सकता है, जो किसी भी रूप में कृति-परक, प्रामाणिक तथा तर्कानुयायी न हों । उदाहरणार्थ,प्रसाद-कृत “कामायनी" शैव दार्शनिक महाकाव्य है। कवि ने उसमें मानव-जीवन के विकास पर आध्यात्मिक दृष्टि से विचार किया है । स्वर्गीय श्री गजानन माधव मुक्तिबोध एक प्रगतिवादी समालोचक थे। आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि से उनका कोई लेना-देना न था। अतः जब उन्होंने कामायनी का अध्ययन किया तो उन्हें कोई भी आत्मोल्लासक तत्त्व न मिला । मानव-जीवन
और इतिहास की मार्क्सवादी व्याख्या के दर्शन न हुए, तो प्रसाद के काव्य-शिल्प पर खीझ उठे और उन्होंने कामायनी के सम्बन्ध में ऐसे निर्णय दे डाले, जिनका उस कृति की मूल अभिव्यक्ति से कोई सम्बन्ध ही नहीं है। फलतः उनकी समालोचना पुस्तक “कामायनी : एक पुनर्विचार" कृति-परक, प्रामाणिक एवं तर्कानुयायी न होकर उनके व्यक्तिगत जीवन-दर्शन की व्याख्या बन गई है। समालोचक होने के कारण ही वे साहस के साथ स्वतन्त्रतापूर्वक ऐसा कर सके हैं, अगर उन्हें शोधपरक परिणामों तक पहुँचना होता तो उन्हें वे सीमाएँ माननी पड़तीं,जो अध्येता के जीवन-दर्शन की नहीं, कृति में निहित जीवन-दर्शन को महत्त्व देती है।
अतः स्पष्ट है कि समालोचना की अपेक्षा शोध के निर्णय अधिक प्रामाणिक तथा वस्तु-परक पद्धति का अनुसरण करते हैं। उनमें वह शक्ति आ जाती है जिसके आधार पर शोध का समस्त अध्ययन तर्क के विषम आक्रमणों को झेलता हुआ अविश्वासों की
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