Book Title: Anusandhan Swarup evam Pravidhi
Author(s): Ramgopal Sharma
Publisher: Rajasthan Hindi Granth Academy

View full book text
Previous | Next

Page 68
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 58 / अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि अग्नि परीक्षा में स्वर्ण-सा निखरता है, जबकि समालोचक का कार्य ऐसी किसी सिद्धि तक नहीं पहुँच पाता । साहित्यिक शोध और समालोचना का वह अन्तर शोधक और समालोचक के रचनात्मक मार्गों को भी बदल देता है। समालोचक की रचना-प्रक्रिया अध्येय वस्तु (कृति) के पठन के पश्चात् मस्तिष्क में उतर आने वाली प्रतिक्रियाओं में आरम्भ हो जाती है और उन्हीं के विवेचन से वह पूर्ण भी हो जाती है जबकि शोधार्थी की कृति के पठन के पश्चात् अपना लेखन कार्य प्रारम्भ करने के लिए शोध प्रक्रिया के दीर्घ वृत्त पर घूमना पड़ता है। उसे पहले अधीत वस्तु (कृति) के सम्बन्ध में एक प्रश्न, एक समस्या या शंका उठानी पड़ती है और निश्चय करना पड़ता है कि वह प्रश्न, समस्या या शंका निराधार नहीं है। तत्पश्चात् उस प्रश्नं या समस्या को वह एक कल्पित विचार देता है। उदाहरणार्थ, कामायनी को पढ़कर समालोचक उसके विषय में तुरन्त अपनी व्याख्याएँ या मत व्यक्त कर सकता है, किन्तु शोधक ऐसा नहीं कर सकता। उसे कामायनी के सम्बन्ध में कोई समस्या या प्रश्न उठाना पड़ता है। उसका प्रश्न हो सकता है क्या कामायनी एक मनोवैज्ञानिक काव्य है ? अब वह इस प्रश्न को कल्पित विस्तार भी दे सकता है। अर्थात् वह कह सकता है- अगर कामायनी एक मनोवैज्ञानिक काव्य है, तो उसमें कौन-सा मनोविज्ञान कहाँ और किस रूप में प्रयुक्त हुआ है, समस्त काव्य में उसका निर्वाह हुआ है या नहीं, वह कामायनी का प्रस्तुत पक्ष है अथवा अप्रस्तुत पक्ष है, अगर अप्रस्तुत पक्ष है तो क्यों ? मनोविज्ञान ही उसमें आधार क्यों बनाया गया है, अन्य कोई आधार क्यों न माना जाये, आदि । शोधक की कल्पना एक- दूसरे प्रश्न - वृत्त पर भी घूम सकती है। वह यह भी सोच सकता है कि मान लीजिए, कामायनी एक मनोवैज्ञानिक काव्य ही है, पर उसमें भविष्य में श्रद्धा से उत्पन्न होने वाली अपनी सन्तान का मोह छोड़कर मनु पलायन क्यों करता है, अपने पति को घायल करा देने वाली सपत्नी-तुल्य इड़ा की कामायनी स्वेच्छा-पूर्वक बिना कोई शंका किये अपना प्रिय पुत्र क्यों सौंप देती है, क्या ऐसी ही अन्य अनेक बातों को भी मनोवैज्ञानिक काव्य मान लेने पर कामायनी से कोई सन्तोष जनक उत्तर मिल सकता है ? इन सभी प्रश्नों के विस्तार तक जाने की समालोचक को आवश्यकता नहीं होती। वह तो अपना एक मानदण्ड बना लेता है और उसी से हर प्रकार की कृति का मूल्यांकन करता रहता है। उदाहरणार्थ, शिवदानसिंह चौहान प्रगतिवादी मानदण्ड से हर कृति की समीक्षा करते हैं और डॉ. देवराज उपाध्याय का मुख्य मानदण्ड मनोविज्ञान-परक है। किन्तु शोधार्थी जब एक बार अपनी समस्या को कल्पना का विस्तार दे देता है, तो उसे उसके साथ तर्कों का जाल भी बिछाना पड़ता है और प्रत्येक कल्पना को वस्तु (कृति आदि) के विश्लेषण के साथ तर्क की कसौटी पर कसते हुए आगे बढ़ना अनिवार्य हो जाता है। उसके लिए उसे कृति में से तथ्य एकत्र करने पड़ते हैं । फिर उसे उन प्रमाणों की भी प्रामाणिकता परखनी पड़ती है तथा तथ्यों के सन्दर्भ में उभरते हुए सत्यों को एकत्र करना पड़ता है। इस प्रकार एकत्र तथ्यों को वह वस्तु निष्पक्ष होकर पुनः विश्लेषण की खराद पर चढ़ाता है और तब जो निष्कर्ष निकलते हैं, उन्हें अपनी उपलब्धि घोषित करता है। सौभाग्य से समालोचक इस समस्त वृत्त पर घूमने से For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115