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38 / अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि
वस्तुतः जिस प्रकार की शोध दर्शनशास्त्र में आवश्यक है; वह है उपलब्ध चिन्ता - धाराओं का पुनराख्यान तथा उसके प्रकाश में उन धाराओं के सामाजिक प्रभावादि का मूल्यांकन ।
दर्शनशास्त्र में शोध की प्रविधि
दर्शनशास्त्र सम्बन्धी विचार-ग्रन्थों से आरंभ होकर सम्प्रदाय, मठों, मन्दिरों, अन्य धर्मों के पूजाघरों, व्यक्तियों, समुदायों आदि तक जाते हैं। इस विस्तार को देखते हुए दर्शनशास्त्र सम्बन्धी शोध को मुद्रित सामग्री तक सीमित कर देना भारी भूल होगी । अतः विषय का चयन करते समय शोधार्थी को यह ध्यान रखना चाहिए कि उसका शोध-क्षेत्र क्या है ?
यदि शोध कार्य की परिकल्पना सोच-समझकर तय की जाए तो उसकी रूपरेखा सरलता से ऐसी बन सकती है जिसका निर्वाह उचित दिशा में हो सके । यदि शोध-परिकल्पना पाण्डुलिपियों पर आधारित है, तो सर्वप्रथम शोधार्थी को प्राचीन लिपिज्ञान प्राप्त करना होगा तथा तत्पश्चात् उसे निर्धारित करना होगा कि वह किन-किन पाण्डुलिपियों का अध्ययन करे। यह कार्य करने के लिए शोधार्थी को प्राचीन भाषाओं का ज्ञान भी आवश्यक है। उदाहरणार्थ, भारतीय दर्शनों पर शोध कार्य करने वाले व्यक्ति को, यदि वह वैदिक दर्शनों पर शोध करना चाहता है, तो संस्कृत भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त करके ही विषय में प्रवेश करना चाहिए। जो शोधार्थी बौद्ध एवं जैन दर्शनों पर शोध करना चाहते हैं, उन्हें पाली, प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं का ज्ञान होना चाहिए। यदि ऐसा न हो तो मूल प्रस्थान ही गलत हो जाता है। जिस भाषा में ग्रन्थ लिखे हुए हैं, उसे जाने बिना शोध क्या, सामान्य अध्ययन भी संभव नहीं है । प्रायः देखा जाता है कि संस्कृत भाषा का 'अ', 'ब','स' भी न जानने वाले शोधार्थी दर्शनशास्त्र की स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर लेते हैं और वैदिक दर्शन सम्बन्धी परिकल्पनाएँ लेकर शोध कार्य आरंभ कर देते हैं । यही स्थिति कभी-कभी बौद्ध एवं जैन दर्शनों से सम्बन्धित विषयों में भी बनती है। अतः शोधकर्त्ता को ऐसी भयंकर भूल से बचना चाहिए।
मुद्रित ग्रन्थों अथवा पाण्डुलिपियों के आधार पर किया गया शोध कार्य कभी-कभी उसके व्यावहारिक पक्ष की उपेक्षा कर देता है। कोई भी दर्शन व्यावहारिक जीवन में उतरने से नहीं बचा। यही कारण है कि तरह-तरह के सम्प्रदाय और मतवाद प्रचलित हो गये हैं। शोधकर्त्ता को इन सम्प्रदायों और मतवादों तक उन दर्शनों के विस्तार और समय-समय पर उनमें आ जाने वाली विकृतियों का भी पता लगाना होता है । अतः दर्शनशास्त्र के शोधकार्य में कभी-कभी प्रश्नावली और आँकड़ों की पद्धति से भी सहयोग लेना चाहिए। ऐसा करने पर ही सही सामग्री एकत्र हो सकती है तथा उस पुष्ट आधार पर ही शोधकर्ता का अध्ययन सही दिशा में अग्रसर हो सकता है।
शोध की परिकल्पना का सही चुनाव हो जाने और आधारभूत सामग्री के संकलन तथा समझने की स्पष्ट दिशा ज्ञात हो जाने के पश्चात् शोधकर्ता को सम्बन्धित सिद्धांतों का
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