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दर्शनशास्त्र की अनुसंधान-प्रविधि/39 गंभीर अध्ययन करना चाहिए और कार्ड बनाकर प्रमाण-सामग्री जुटानी चाहिए । दर्शनशास्त्र में प्रमाणों का बहुत महत्त्व है। प्रमाणों की व्याख्या के आधार पर ही किसी दर्शन-विशेष के व्यावहारिक स्वरूप की समीक्षा संभव हो सकती है। कभी-कभी किसी मतवाद के आधार पर प्रचलित विभिन्न विश्वास तथा धार्मिक व्यवहार समय के परिवर्तन के साथ इतने अधिक बदल जाते हैं कि उनके मूल स्वरूप की पहचान ही छिप जाती है। उस पहचान को पुनः स्थापित करने तथा उसके आधार पर लोक-व्यवहार में स्वीकृत सिद्धांतों का विवेचन करके किन्हीं निष्कर्षों पर पहुँचना कठिन हो जाता है । इस कठिनाई को तभी हल किया जा सकता है,जब शोधार्थी विषय का गंभीर अध्ययन करके प्रमाणभूत सामग्री को विवेकपूर्वक समझने में सफल हो।
दर्शनशास्त्र में शोध करने के लिए शोधार्थी को विषय की परिकल्पना एवं रूपरेखा आदि तैयार करने के उपरान्त सामग्री संकलन और प्रमाण-पद्धति तक पहुँचने में जो समय लगता है, वह विश्लेषण के स्तर पर बहुत काम आता है । व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित विषय होने पर शोधार्थी को प्रश्नावली और सर्वेक्षण का सहारा भी लेना ही पड़ता है, किन्तु उसके पश्चात् भी विश्लेषण के स्तर से ही वास्तविक शोध-कार्य आरंभ होता है । प्रमाणों के प्रकाश में विश्लेषण करके उचित विवेचन करना और महत्त्वपूर्ण तथ्यों की पहचान पर बल देना दार्शनिक चिन्तन को परिपुष्ट करता है।
दार्शनिक ज्ञान में तर्कशास्त्र का विशेष महत्त्व है, अतः विवेचन करते समय तर्क को अधिक से अधिक सुदृढ़ आधारों पर प्रतिष्ठित करना चाहिए। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि तर्क ऐसे हों जो मानव-जीवन की गुत्थियों को सुलझाने वाले विचारों को समृद्ध करें तथा जो पूर्णत: विश्वसनीय निष्कर्षों तक पहुँचाएँ।
विवेचन के उपरान्त दर्शनशास्त्र के शोधार्थी को उपसंहार में अपने निष्कर्ष प्रस्तुत करके सिद्धांत-विशेष के महत्त्व की स्थापना पर विशेष बल देना चाहिए। उसके निष्कर्ष ऐसे होने चाहिएँ जो कल्पित प्रतीत न हों तथा जिनसे सामाजिक हित की शर्त का उल्लंघन
न हो।
दर्शनशास्त्र के शोधार्थी को शोध-प्रबंध का लेखन-कार्य संक्षेप में करना चाहिए। अनावश्यक विवरणों या वर्णनात्मक आलेख दर्शनशास्त्रीय निष्कर्षों में विशेष सहायक नहीं होते। शोध-प्रबन्ध में दिये गये संस्कृत आदि भाषाओं के दार्शनिक ग्रन्थों से उद्धृत प्रमाणों को बहुत सावधानी से अंकित करना चाहिए, ताकि वे अशुद्ध होकर अपनी विश्सनीयता न खो बैठें, पाद-टिप्पणी में उनके पूर्ण विवरण अवश्य दिए जाएँ, ताकि उनका मिलान करने की आवश्यकता पड़ने पर किसी प्रकार की कठिनाई परीक्षक या पाठक को न हो।
परिशिष्ट में उन सभी ग्रन्थों, पत्र-पत्रिकाओं, शिलालेखों, पाण्डुलिपियों आदि का लेखक, सम्पादक, प्रकाशक, संस्मरण आदि सहित उल्लेख किया जाना बहुत आवश्यक है। जिन विद्वानों के कार्यों से सहायता ली जाए, उनका उल्लेख एवं किस सीमा तक उनका
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