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दर्शनशास्त्र की अनुसंधान-प्रविधि
दर्शनशास्त्र का विस्तार
___ मानविकी विषयों में दर्शनशास्त्र का विशेष महत्त्व है। मानवीय चिन्तन का चिरकालीन भण्डार दर्शनशास्त्र ही है। जीवन की उत्पत्ति कैसे होती है ? यह संसार क्या है ? क्या कोई जीव और जगत् का नियंत्रण करता है ? इस प्रकार के अनेक प्रश्न तो मानव-सभ्यता के विकास के साथ उठते ही रहे हैं। साथ ही, ज्यों-ज्यों मानव-जाति का सांस्कृतिक विकास होता गया है ,त्यों-त्यों अन्य अनेक प्रश्न भी उठते चले गये हैं। उदाहरण के लिए, समाज क्या है, व्यक्ति क्या है आदि, या मानव की उत्पत्ति का रहस्य क्या है, आदि । आध्यात्मिक दर्शनों के साथ-साथ भौतिक दर्शनों का भी विकास होता रहा है। फलतः मानवीय चिन्तन अनेक प्रकार की विचारधाराओं में विभाजित हो गया है। अनेक धर्म और सम्प्रदाय बने हैं तथा उनसे प्रभावित होकर नये पंथ चले हैं जिनका जाल समस्त संसार में फैला हुआ है। दर्शनशास्त्र में शोध की आवश्यकता
__ भारत में भी अनेक मत,सम्प्रदाय, पंथ आदि पाये जाते हैं। जितने मंदिर-मठ बने, सबके साथ अलग-अलग मतवाद जुड़ते चले गये । हर सम्प्रदाय ने अपने लिए पृथक् ग्रन्थ तैयार कर लिया और उसके आधार पर उसका नया दर्शन चल पड़ा । यों भारतवर्ष में अनेक देवी-देवता ही नहीं बने, मतवाद भी अनेक हो गये हैं। इन सब पंथों की विचार-धाराओं में कितना सत्य है, कितना झूठ; कितना अंश निर्मल है और कितना समल, कितना यथार्थ है
और कितना आडम्बर; इन बातों की छानबीन सदा आवश्यक है। इसी छानबीन के लिए दर्शनशास्त्र सम्बन्धी अनुसंधान आवश्यक होता है । शुद्ध दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन तो बहुत कठिन कार्य है। यह कार्य विश्वविद्यालयों की कक्षाओं में बैठकर या उपाधियाँ धारण करके नहीं हो सकता; इसके लिए तो सभी उपाधियों से निःशेष होना पड़ता है।
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