________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
54/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि वर्ष पूर्व लिखी गई किसी कृति की पाण्डुलिपि का पता लगा लेना खोज हो सकती है,उसके रचयिता के परिचय का उस कृति के माध्यम से अन्वेषण किया जा सकता है या बाह्य साक्ष्यों के अनुशीलन से भी उन तथ्यों की गवेषणा की जा सकती है, जिनसे इस सत्य तक पहुंचा जा सके कि अमुक व्यक्ति का,जो अमुक ग्रन्थ का रचयिता है,परिचय इस प्रकार है। किन्तु ये सब प्राप्त तथ्य तुलनात्मक विश्लेषण और सत्य की व्यापक दृष्टि की फिर भी अपेक्षा रखते हैं, जब तक उसके विषय में निर्मल और सन्देहहीन निर्णय उपलब्ध नहीं हो पाता। शोध इस अन्तिम सन्देह-हीन और निर्मल सत्योपलब्धि तक पहुंचने वाली प्रक्रिया का नाम है। अगरचन्द नाहटा, मुनि कान्तिसागर आदि कुछ विद्वान् पुरानी पाण्डुलिपियों का पता लगाने के लिए उत्सुक रहते थे। जब उन्हें 100-200 वर्ष पुरानी कोई जीर्ण-शीर्ण हस्तलिखित पुस्तक मिल जाती थी तब वे नई खोज के नाम से उसका मात्र उतना परिचय प्रकाशित करा देते थे,जितना उस पाण्डुलिपि से उन्हें प्राप्त होता था। इस प्रकार के परिचय में उपलब्ध कृति की आरम्भ और अन्त की कुछ पंक्तियाँ ज्यों की त्यों उद्धृत कर दी जाती थीं। नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी-साहित्य सम्मेलन, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर तथा विभिन्न राज्य सरकारों के खोज-विवरण भी इसी प्रकार के कार्य प्रस्तुत करते हैं । वस्तुतः यह शोध-कार्य नहीं है,खोज-कार्य हो सकता है। इस कार्य में “खोज" शब्द का अर्थ केवल किसी कृति के विलम्ब से उपलब्ध होने पर ही आधारित है, अन्यथा इतना कार्य तो जीवित लेखक की किसी अप्रकाशित कृति के सम्बन्ध में भी किया जा सकता है। प्रथम प्रकार के कार्य से द्वितीय प्रकार का कार्य केवल इसी अर्थ में भिन्न है कि प्रथम कार्य के माध्यम से प्रकाश में आने वाला लेखक कुछ वर्षों के पर्तों में समाधि ले चुका है और द्वितीय प्रकार के कार्य से प्रकाश में आने वाला लेखक अभी जीवित है। वस्तुतः यह खोज पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली सामान्य परिचयात्मक समीक्षा की ही सीमा में आती है। जब खोजी हुई पाण्डुलिपि की प्रामाणिकता का गवेषण करके उसके तथ्यों का अन्वेषण कर लिया जाए
और तुलनात्मक दृष्टि से उन तथ्यों का अनुसंधान कर लिया जाये, तभी वह कृति प्रमाणित होती है और किसी शुद्ध निष्कर्ष पर पहुँच कर शोध का परिचय बनती है। इसलिए विश्वविद्यालयों में शोध के आधारभूत सिद्धान्तों में निम्नांकित बातों को सम्मिलित किया गया है : (1) शोध-प्रबन्ध में ज्ञात तथ्यों की खोज अथवा ज्ञात तथ्यों और निष्कर्षों का नवीन
दृष्टि से आख्यान होना चाहिए।
शोध-प्रबन्ध में विवेचनात्मक विश्लेषण, परीक्षण और विश्वसनीय निष्कर्ष होना चाहिए। शोध-प्रबन्ध की स्थापना-पद्धति साहित्यिक दृष्टि से विश्वसनीय और संतोषप्रद
होनी चाहिए। (4) शोध-प्रबन्ध के निर्णय ऐसे होने चाहिएँ, जो ज्ञान-क्षेत्र की सीमा के विस्तार में
सहायक हों।
For Private And Personal Use Only