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साहित्यिक अनुसंधान एवं समालोचना
यहाँ “अनुसंधान” तथा “समालोचना” शब्दों का प्रयोग साहित्यिक अथों में किया जा रहा है । साहित्यिक अनुसंधान का कार्य दो दृष्टियों से किया जाता है। कुछ ऐसे विद्वान होते हैं,जो साहित्य के अज्ञात सत्यों तक पहुँचने के लिए अनुसंधान में तल्लीन होते हैं, दूसरे वे जो किसी उपाधि की परीक्षा के लिए शोध-प्रबन्ध लिखते हैं। प्रथम प्रकार के शोध-कार्य से द्वितीय प्रकार का शोधकार्य स्तर, पद्धति और स्वरूप में पर्याप्त भिन्न होता है। अतः प्रस्तुत अध्याय में अनुसंधान' या 'शोध' शब्द का अर्थ द्वितीय प्रकार के कार्य तक सीमित कर दिया गया है । “समालोचना" शब्द भी दो अर्थों में प्रयुक्त होता है-प्रथम प्रकार की वह समालोचना है, जो स्वतन्त्र ग्रंथ के रूप में एक पूर्ण आकार के साथ प्रस्तुत की जाती है और द्वितीय प्रकार की वह समालोचना है,जो पत्र-पत्रिकाओं में पुस्तक-परिचय आदि के रूप में प्रकाशित होती है। “समालोचना" शब्द को अनुसंधान के साथ रखकर प्रस्तुत अध्याय में प्रथम अर्थ में देखना ही अभिप्रेत है। रूप, विवेचन-पद्धति तथा आकार आदि में द्वितीय प्रकार के शोध-कार्य से प्रथम प्रकार की समालोचना को ही बाह्य दृष्टि से कुछ ऐसी समानता रहती है जिसके कारण प्रायः शोधार्थी के भ्रमित होने का भय उत्पन्न हो जाता है। प्रस्तुत अध्याय में इन्हीं अर्थ-सीमाओं में अनुसंधान और समालोचना का पारस्परिक साम्य-वैषम्य स्पष्ट करना मुख्य साध्य है।
साहित्यिक अनुसंधान क्या है ?
साहित्य की रचना के मूल में भाव, कल्पना और विचार रहते हैं। इन तीनों की सूक्षम स्थिति से सम्पन्न साहित्य का अनुसंधान किस प्रकार संभव है, यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न सामने आता है । वस्तुत: कोई भी साहित्यिक सत्य जब परिष्कृत, प्रमाणित, संदेह-रहित और तथ्यपूर्ण होकर सामने आता है, तब वह अनुसंधान का परिणाम बनता है। खोजकर लाने के पश्चात् भी किसी पदार्थ में तब तक निर्मलता, प्रामाणिकता या निदर्षिता नहीं आ सकती, जब जक उसके अंगों का पृथक्-पृथक् अनुशीलन न कर लिया जाये। आज से 200
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