Book Title: Anusandhan Swarup evam Pravidhi
Author(s): Ramgopal Sharma
Publisher: Rajasthan Hindi Granth Academy

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Page 58
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 48 / अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि उच्चारण एवं अर्थ की शुद्ध पहचान शोधकर्त्ता को भाषिकी अध्ययन के लिए प्रारंभ में यह निर्णय कर लेना चाहिए कि उसका विषय पुस्तकों की सामग्री पर निर्भर है या क्षेत्र - कार्य पर । यदि उसे किसी भाषा के बोलचाल के स्वरूप का अध्ययन करना है, तो उस क्षेत्र में उसे पर्याप्त समय तक निवास करना चाहिए, जिस क्षेत्र की बोली का वह अध्ययन कर रहा । शहर में बैठकर और क्षेत्र के कुछ लोगों को बुलाकर उनके "कथन” लिख लेने तथा उनके आधार पर उस बोली का विश्लेषण कर देने से अनुसंधान का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। इस प्रकार के अध्ययन कितनी ही सावधानी से किए जाएँ, प्रायः अशुद्ध तथ्यों को प्रकाश में लाते हैं। क्षेत्र में कुछ समय निवास करने के पश्चात् उस बोली के उच्चारण एवं अर्थ-सम्बन्धों की सही पहचान संभव होती है। लोक-साहित्य की भाषा लोक जीवन में जो कथाएँ, वार्ताएँ, लोक-गीत आदि प्रचलित होते हैं, उनमें जो भाषा या बोली- रूप मिलते हैं, उनमें शब्दार्थ की एक दीर्घ परम्परा भी छिपी रहती है । अतः क्षेत्र में निवास कर लेने पर शोधार्थी बहुत सरलता से उन प्रयोगों को समझ सकता है जो परम्परागत हैं तथा समकालीन प्रयोगों से भिन्न हैं। लोक-साहित्य का संग्रह और संपादन भी बहुत हुआ है तथा उसका प्रकाशित रूप पुस्तकालयों में मिल जाता है। किन्तु शोधकर्त्ता को यह नहीं भूलना चाहिए कि उस संग्रह के पीछे भाषिकी दृष्टि बहुत कम रही होगी, साथ ही लोक-साहित्य के संग्रह - कर्त्ता भी अधिक पढ़े-लिखे या शोध-दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति ही हों, यह भी आवश्यक नहीं है । अतः इस दृष्टि से किया गया कार्य यदि सर्वांश में प्रामाणिक आधार मान लिया जाए और उसके आधार पर पुस्तकालय में बैठकर शोधकर्म कर लिया जाए तो शोधार्थी की समस्त उपलब्धियाँ अशुद्ध हो सकती हैं। ऐतिहासिक दृष्टि की अपेक्षा भाषा या बोली से सम्बन्धित अनुसंधान करते समय शोधार्थी को यह तथ्य भी ध्यान में रखना चाहिए कि हर भाषा या बोली किसी-न-किसी भाषा-परिवार का ऐतिहासिक विकास होती है । अत: सामग्री एकत्र हो जाने पर विधिवत् अध्ययन करते समय उस विकास को भी ध्यान में रखना चाहिए तथा यथावश्यक उसे तुलना का विषय बनाना चाहिए । उदाहरणार्थ, यदि शोधार्थी ब्रजभाषा पर शोध कार्य कर रहा है, तो उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि यह बोली आर्य परिवार की भाषा है। ऐसी स्थिति में अपभ्रंश, प्राकृत एवं संस्कृत में उसके पूर्व रूपों की पहचान भी आवश्यक होगी। केवल शब्द-सम्बन्धी तुलना ही पर्याप्त नहीं मानी जानी चाहिए, बल्कि उसके व्याकरणिक परिवर्तनों पर भी ध्यान केन्द्रित करना चाहिए । For Private And Personal Use Only

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