Book Title: Anusandhan Swarup evam Pravidhi
Author(s): Ramgopal Sharma
Publisher: Rajasthan Hindi Granth Academy

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Page 28
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 18/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि वातावरण-संगति के द्वन्द्व को नहीं पहचान सका था। प्रायोगिक मनोविज्ञान इस प्रकार के अन्तर्मुख मनोविश्लेषणवाद को समाप्त करने के लिए ही विकसित हुआ। “फैकनर" नामक विद्वान ने प्रायोगिक सौन्दर्यशास्त्र का प्रवर्तन किया। मैडोना के चित्रों की प्रदर्शनी करके उसने प्रत्येक दर्शक से प्रतिक्रिया जाननी चाही। कहा जाता है कि 11000 दर्शकों में से केवल 113 ने ही अपनी प्रतिक्रियाएं लिखने का उत्साह दिखाया। इन प्रतिक्रियाओं में भी फैकनर की प्रश्नावली की उपेक्षा कर दी गई थी। उनमें जो कला-विवेचक थे उनकी प्रतिक्रियाओं में पूर्वाग्रहों की प्रधानता मिली। वस्तुतः यह एक प्रयोग था,जो रचनाकार और रचना के अन्तर्मुख मनोविश्लेषण से सम्बन्धित न होकर रचनाकार और रचना के बाह्य प्रभावों से जुड़ा था। इस प्रकार के प्रयोग में पाठक और दर्शक का मनोविज्ञान प्रभावी रहा। आजकल शोध की यह मनोवैज्ञानिक प्रयोग-प्रविधि ही अधिक प्रचलित हो रही है, जिसका एक सिरा यदि कृति और कृतिकार से जुड़ा है,तो दूसरा सिरा समाज से गहन-गंभीर सम्बन्ध रखता है। अतः साहित्य के अनुसंधान में प्रायोगिक मनोविज्ञानवादी प्रविधि प्रभाव, व्यापकता आदि के अनुशीलन में बहुत सहायक हो सकती है। 6. समाजशास्त्रीय शोष-प्रविधि प्रायोगिक मनोविज्ञानवादी शोध-प्रविधि का एक सिरा समाजशास्त्रीय शोध-प्रविधि से जुड़ा है। कोई भी रचना वैयक्तिक क्षेत्र तक सीमित नहीं रहती, उसका सम्बन्ध अनिवार्यतः समाज से रहता है । अत: कुछ वर्षों से अनुसंधान के क्षेत्र में इस पद्धति का प्रयोग अधिक होने लगा है। किसी भी रचना का मूल्य अब इस बात पर निर्भर नहीं रहा कि उसमें कौन-सा रस-प्रधान है तथा उसकी शैली कैसी है। समाजशास्त्रीय शोध-प्रविधि के पक्षधर शोधकर्ता यह मानते हैं कि प्रत्येक रचना का समाज से क्या सम्बन्ध है तथा समाज पर उसका क्या प्रभाव पड़ने वाला है ? कुछ पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि ज्ञान एक निरपेक्ष क्रिया नहीं है। उसके साथ स्थिति भी सम्बद्ध है। हर प्रकार का चिन्तन तब तक कोई अर्थ नहीं रखता,जब तक परिस्थिति के साथ उसकी संगति न समझी जाए। किसी भी कलाकृति की सर्जना किसी-न-किसी विशेष परिस्थिति में होती है। उस संदर्भ को सही-सही समझे बिना अनुसंधानकर्ता सत्य के निकट भी नहीं पहुँच सकता, सत्य को पाने की बात तो दूर है। चाहे विषय-सामग्री का अन्वेषण किया जाए, चाहे रूप, भाषा, अनुभव आदि का- वह संदर्भपरक ही होगा, व्यक्ति-परक नहीं हो सकता। कोई भी प्रवृत्ति अपने ऐतिहासिक विकास में संदर्भ-विशेष से ही जुड़ी होती है। इस प्रकार व्यक्ति और समाज का द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध समझना अत्यावश्यक है जिसके लिए समाजशास्त्रीय शोध-प्रविधि का प्रयोग किया जाता है। किन्तु अभी तक हिन्दी साहित्य में जिन शोधकर्ताओं ने इस प्रविधि का प्रयोग किया है. उनमें अधिकांश ऐसे हैं.जो विवरणात्मक दष्टि अपनाते रहे हैं। यदि इस शोध-प्रविधि का सही प्रयोग किया जाए, तो केवल पाश्चात्य साहित्य की असंगतियों का ही उद्घाटन नहीं होगा, बल्कि प्राच्य देशों के साहित्य की असंगतियाँ भी प्रकाश में आ सकती हैं। For Private And Personal Use Only

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