Book Title: Anusandhan Swarup evam Pravidhi
Author(s): Ramgopal Sharma
Publisher: Rajasthan Hindi Granth Academy

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Page 44
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 34/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि अधिक किन्तु निरर्थक तथ्य जुटाने से शोध-कार्य पर विपरीत प्रभाव पड़ने की पूर्ण संभावना रहती है। यहाँ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इतिहास के अध्ययन के लिए प्राप्त तथ्य भाव-चित्र मात्र होते हैं । हम उन्हें साक्षात् नहीं देख सकते । केवल भावों की आंखें ही उन्हें देख पाती हैं। अतः उनका विशिष्ट होना सहज है। इसलिए अनेक तथ्यों में परस्पर तुलनात्मक दृष्टि से ग्रहण-त्याग की शैली अपनानी होती है। यह दृष्टि प्रायः व्यक्तिनिष्ठ हो जाती है। इसलिए सावधानीपूर्वक शोधकर्ता को ऐसे निर्णय लेने होते हैं जिनसे तथ्यों पर उसकी व्यक्तिनिष्ठता हावी न हो जाए। अतीत की सामग्री से उपलब्ध तथ्य भाव व घटनाओं को जन्म तो दे सकते हैं, उनके कारण बन सकते हैं,किन्तु वे मार्गदर्शन नहीं माने जा सकते, क्योंकि इतिहास की धारा अविच्छिन्न होने पर भी निरंकुश होती है। अतः तथ्यों की छंटनी करते समय शोधार्थी को उनकी शक्ति और प्रभाव को भी बहुत सावधानी से समझ लेना चाहिए। कभी-कभी अतीत और वर्तमान की कई घटनाओं में ऊपरी समानताएं दिखाई देती है। उन समानताओं के आधार पर किन्हीं तथ्यों को प्रमाण बनाकर शोध के अगले सोपान पर अग्रसर होना कभी-कभी अत्यन्त विश्वसनीय परिणामों पर पहुंचा सकता है। लोग कहते, हैं कि इतिहास स्वयं को दोहराता है, किन्तु इस कथन में आंशिक सत्य ही है,सदैव ऐसा नहीं होता बल्कि अधिकांशतः विपरीत इतिहास सामने आता है । अत: तथ्यों का वर्गीकरण उपर्युक्त कथन के प्रकाश में कर देना भयंकर भूल मानी जानी चाहिए। तथ्य-संकलन के उपरान्त इतिहास के शोधकर्ता को तथ्य-विश्लेषण और व्याख्या के सोपानों पर आरोहण करना होता है जो तथ्य उसने सामग्री से चयन किये हैं, उनका भली-भांति विश्लेषण करके उनकी व्याख्या करनी होती है। इस कार्य के लिए उसे तर्क-पूर्वक उपयुक्त प्रमाण प्रस्तुत करने होते हैं। प्रमाणीकरण की स्थिति में विभिन्न साधन काम आते हैं। अतीतकालीन पट्टे-परवाने, सिक्के, शिलालेख, उत्खनन-सामग्री, पाण्डुलिपियाँ, मूर्तियां, प्राचीन चित्र आदि के प्रमाण देकर शोधकर्ता अपने विश्लेषण को प्रामाणिक बनाता है। विश्लेषण और विवेचन की उचित योग्यता के अभाव में प्रमाण भी निरर्थक सिद्ध होते हैं। अतः शोधार्थी को बहुत सावधानीपूर्वक विश्लेषण और विवेचन में प्रवृत्त होना चाहिए। किसी भी तथ्य पर चलती दृष्टि या लापरवाही से भरी टिप्पणियाँ गंभीर दुष्परिणामों तक पहुंचा सकती हैं तथा समस्त शोध कार्य को ही हास्यास्पद बना सकती हैं। विश्लेषण और विवेचन जितना तर्क-पुष्ट तथा प्रमाण-सम्मत होगा, उतना श्रेष्ठ शोध-कार्य सम्पन्न हो सकेगा। वस्तुतः इतिहास की सामग्री तो इधर-उधर बिखरी या संग्रहालयों एवं अभिलेखागारों में भरी पड़ी है, किन्तु उससे अपेक्षित तथ्य संग्रह करके उनका एक समस्या के रूप में सही दिशा में तर्क-सम्मत प्रमाण-पुष्ट सही विश्लेषण एवं विवेचन कर देना ही तो महत्त्वपूर्ण शोध-कार्य माना जा सकता है। अधिकांश तथ्य इतिहासकारों द्वारा प्रकाश में For Private And Personal Use Only

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