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20/ अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि
यह भी कम सत्य नहीं कि जीवन को समझने के जो मापदण्ड हैं, वे साहित्य को समझने में भी सहायक हो सकते हैं। इन सभी मापदण्डों में प्रयोगात्मक शैली की प्रविधि अपनाई जानी चाहिए। शोधार्थी साहित्यिक या कलात्मक रचना के सम्बन्ध में पाठकों पर प्रयोग कर सकता है। किसी कविता के प्रभावों का आकलन पाठक के हाव-भाव का अवलोकन करके किया जा सकता है। एक ही रचना यदि अनेक व्यक्तियों को पढ़ने को दी जाए या उन्हें सुनाई जाए तो उसके अलग-अलग प्रभाव हो सकते हैं। साधारणीकरण की स्थिति अब सर्वमान्य नहीं रही। किसी चलचित्र को देखते समय दुखान्त स्थिति में कुछ दर्शक आँसू बहाते हैं, कुछ हँसते हैं और कुछ व्यंग्य कसते हुए चिल्लाते भी हैं । अतः यह नहीं कहा जा सकता कि किसी कलात्मक रचना का अनिवार्यतः साधारणीकरण होता ही है। ऐसी स्थिति में शोधकर्ता के प्रयोगगत आँकड़े करके ही सत्य तक पहुँचने का मार्ग मिल सकता है । किन्तु यह एक कठिन कार्य है । इसलिए इस प्रविधि का प्रयोग लेखन-शैली तक ही सीमित रह गया है।
निष्कर्ष
अनुसंधान की प्रविधि शुद्ध सत्य की उपलब्धि का मार्ग है । अतः जितनी प्रविधियों का आविष्कार हुआ है, उनका उपयोग विषय और उद्देश्य को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। कोई भी अनुसंधान प्रविधि के प्रयोग के बिना सम्पन्न नहीं करना चाहिए अन्यथा उसकी वैज्ञानिकता एवं मौलिकता संदेहास्पद ही रहेगी ।
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