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28/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि शोध-जगत् में अप्रतिष्ठा का विषय बनते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि विषय का चयन करते समय समस्त पूर्ववर्ती अनुसंधान का पता लगा लिया जाये।
एक बार यह निश्चय हो जाने पर कि जो विषय चुना गया है वह पूर्णतः नवीन है। यह भी देखना चाहिए कि उससे समाज या मानव जाति का हित किस सीमा तक होगा। कभी-कभी ऐसे विषय चुन लिये जाते हैं जिनका अब कोई सामाजिक उपयोग तो रह ही नहीं गया है, साथ ही जो समाज, देश या राष्ट्र के हितों के विरुद्ध भी जा रहे हैं। ऐसे विषयों पर की गई शोध निरर्थक तो होती ही है,सामाजिक न्याय के क्षेत्र में हमें अपराधी भी बनाती
जब विषय की शुद्धता एवं उपयोगिता निर्विवाद स्थापित हो जाए, तभी हमें उसकी परिकल्पना तैयार करनी चाहिए। इस परिकल्पना में भी ऐसे बिन्दु या प्रश्न उभरने चाहिएँ जो विषय के अन्तर्निहित सत्य को तो प्रकाश में लाएँ, किन्तु मनुष्य, समाज और देश के हितों से न टकराते हों।
__ परिकल्पना के अनुसार विषय का विभाजन और वर्गीकरण भी सोच-विचार कर करना चाहिए। विभाजन से विषय की मूल शक्ति या उसके स्वरूप का समापन न होने पाये तथा उसके अंग-प्रत्यंग इस ढंग से खुलते जाएँ कि वर्गीकरण करते समय उनमें ऐसा तारतम्य बना रहे जो अनुसंधान को एक समवेत् लक्ष्य पर पहुँचा दे।
वर्गीकरण के बिना वैज्ञानिक शोध सम्भव नहीं है, किन्तु उस वर्गीकरण के अनुसार उचित तर्क-संगत विवेचन भी होना चाहिए। विवेचन कल्पना पर आधारित न होकर, प्रमाण-पुष्ट होना चाहिए । प्रमाण भी ऐसे दिए जाएँ,जो स्वयं शुद्ध हों तथा जिनकी मान्यता असंदिग्ध हो। कई बार देखा जाता है कि कई शोधकर्ता कुंजियाँ और नोट्स-लेखकों तक के उद्धरणों को प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत कर देते हैं । इतिहासादि में ही नहीं,साहित्यिक विषयों में भी ऐसे प्रमाण देकर शोध की प्रक्रिया पूर्ण मान ली जाती है। देखना यह है कि जो प्रमाण स्वयं ही अशुद्ध और अप्रमाणित है,उसे प्रमाण बनाकर हम किस शुद्ध परिणाम तक पहुँच सकते हैं ?
प्रमाण प्रस्तुत करते समय यह भी देखना आवश्यक होता है कि वे हमारे विवेचन और तकों के अनुकूल भी हैं या नहीं ? कभी-कभी एक परम्परा में प्रमाण चलते रहते हैं। एक शोधकर्ता जो प्रमाण प्रस्तुत करता, है, दूसरा उसके शोध कार्य के आधार पर ही उसे चुन लेता है और मूल स्रोत का निरीक्षण या अध्ययन नहीं करता। यों एक से दूसरे, तीसरे, चौथे तक उद्धृत होता हुआ एक प्रमाण अपनी विश्वसनीयता खो बैठता है और शोधकर्ता उसका संदर्भ भी सही-सही नहीं जान पाता तथा उसे अपने मौलिक अध्ययन का परिणाम बताने की भूल कर बैठता है । अधिकांश शोध कार्य इसीलिए केवल “उपाधि" प्राप्त कराने तक समित रह जाते हैं और उनके लिए परिश्रम करना-न-करना बराबर हो जाता है। आज विश्वविद्यालयों की यही स्थिति हो रही है। अधिकांश ऐसे शोधग्रन्थ मिलते हैं जो पुस्तकालयों की रद्दी बढ़ाने के अलावा कोई टेश्यपूर्ण कार्य नहीं करते।
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