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अनुसंधान की प्रविधियाँ/15 अनुसंधान किसी भी विषय का हो, शोधकर्ता को यह देखना होता है कि विषय के बोध का निरन्तर विकास होता चले, उस बोध की निश्चयात्मकता बनी रहे, उसके प्रति विश्वसनीयता रहे तथा ज्ञान के संशोधन के अवसरों में वृद्धि हो।
वस्तुतः अनुसंधान-प्रविधि शोधार्थी से आरंभ होकर विषय के गंभीर विश्लेषण-विवेचन से होती हुई मानव-कल्याण तक जाती है। यदि एक व्यक्ति शोध करके सत्य का उद्घाटन करता है, तो दूसरा (सामाजिक व्यक्ति) उस सत्य का उपयोग करता है। यह सत्य विषय-सामग्री से आता है और उपयोग भी उस सामग्री का ही किया जाता है। अतः शोध की सभी पद्धतियाँ पूर्वोक्त त्रिकोण से घिरी हुई हैं।
विषय-सामग्री, जिससे सत्य प्राप्त किया जाता है, समाज के उपयोग की वस्तु है, अत: शोध की सही दिशा का ज्ञान बहुत आवश्यक है। जब तक शोध-कार्य सामाजिक प्रगति में सहायक नहीं होता, तब तक अनुसंधान-प्रविधि का लक्ष्य सिद्ध नहीं हो सकता। मनुष्य की सांस्कृतिक उन्नति के लिए ही प्रत्येक अनुसंधान की आवश्यकता होती है। भौतिक विकास भी अन्ततोगत्वा एक विकसित संस्कृति का ही पर्याय माना जा सकता है। इस दिशा में शोध-कार्य को अग्रसर करने के लिए उसकी प्रविधि की शुद्धता और प्रामाणिकता बहुत आवश्यक होती है। शोध-प्रविधि के भेद
शोध या अनुसंधान की प्रविधि के कई भेद हैं। साहित्यिक अनुसंधान के क्षेत्र में आजकल अधिकांशतः जो प्रविधि प्रचलित है, वह विभाजनवादी है। यह प्रविधि पर्याप्त नहीं है। विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से जिन प्रविधियों का आविष्कार किया है, वे निम्नांकित है(अ) विषय-सम्बन्धी भेद
1: विभाजनवादी परम्परागत प्रविधि 2. अन्तर्मुख मानस-प्रत्यक्ष प्रविधि 3. दार्शनिक प्रविधि 4. मनोविश्लेषण-प्रविधि 5. प्रायोगिक मनोविज्ञानवादी प्रविधि 6. समाजशासीय प्रविधि 7. विविध ज्ञानात्मक प्रविधि शैलीगत भेद 1. साहित्यिक शैली-प्रविधि 2. धारणात्मक शैली-प्रविधि 3. वैज्ञानिक शैली-प्रविधि 4. प्रयोगात्मक शैली-प्रविधि
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